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वसुदेवहिण्डी : भाषिक और साहित्यिक तत्त्व इव लया पणच्चिया ।...ततो सा धवलेण लोयणजुयलसंचारेण कुमुयदलमयं दिसावलिमिव कुणमाणी, पाणिकमलविच्छोभेण कमलकिसलयसिरिमावहती, कमागयपाउद्धारेण सारसारससोभमुव्वहंती नच्चइ।" (नीलयशालम्भ : पृ. १५५)
अर्थात्, अन्यत्र एक ओर थोड़ी ही दूर पर एक चण्डालकन्या मुझे (वसुदेव को) दिखाई पड़ी, जो रंग में सजल मेघ की तरह काली थी और रूप में श्रेष्ठ आभूषणों से अनुरंजित शरीरवाली वह तारों से जगमगाती रजनी की तरह लगती थी। सौम्यरूपवाली वह कन्या कतिपय मातंगबालिकाओं से घिरी हुई थी।...(बालिकाओं ने जब उसे नाचने के लिए कहा, तब) चाँदनी की तरह दन्तकान्ति छिटकाती हुई उसने कहा : 'जो तुम्हें पसन्द हो, वही करूँगी।' इसके बाद वह अशोकवृक्ष से लिपटी और मन्द-मन्द हवा से कम्पित लता की भाँति नाचने लगी। वह जब नृत्य के क्रम में आँखों का संचार करती, तब दिशाएँ जैसे कुमुदमय हो जातीं। हाथ की भंगिमा तो साक्षात् कमलपुष्प की कान्ति बिखेरती और क्रम से जब वह पैरों को उठाकर नाचती, तब उत्तम सारसी की भाँति उसकी शोभा मोहक हो उठती।
प्रस्तुत सन्दर्भ में कथाकार-निर्मित उपमान और रूपकाश्रित इन्द्रियगम्य बिम्बों का बाहुल्य है, जिन्हें भाव-जगत् के एक अनुभूत महार्घ सत्य की रूपात्मक अभिव्यक्ति कह सकते हैं। बिम्ब-विधान काव्य की विकसित दशा का उदात्तीकरण है। काव्य की विकसित दशा में प्रतीक, रूपक और उपमा के माध्यम से बननेवाले बिम्बों का अपना महत्त्व होता है। उक्त अवतरण में कमल हाथ का प्रतीक है, तो नृत्यगत क्रमिक पदक्षेप उत्तम सारसी की गति का। इसी प्रकार, उपमेय मातंगकन्या के लिए मेघराशि, नक्षत्रयुक्त रात्रि (तारों से जमगमाती रात) तथा अशोक पादपाश्रित मन्दमारुतान्दोलित लता उपमान के रूप में प्रयुक्त हुई है। पन: धवल दशनपंक्ति में चाँदनी एवं लोचन में कुमुद का रूपारोप हुआ है। इस प्रकार कथाकार द्वारा मातंगी का जो बिम्ब उपन्यस्त हुआ है, वह उपमा, रूपक और प्रतीक के आश्रित होकर उसकी अपूर्व सुन्दरता, सुकुमारता, नृत्यकला-कुशलता आदि अनेक गूढार्थों की केंना करता है। 'कालिका' तथा 'सनक्षत्रा शर्वरी' का प्रयोग ‘काले' रंगबोध से सम्पृक्त है, इसलिए यह बिम्ब चाक्षुष प्रतीति से सम्बद्ध है। मन्दमारुतान्दोलित लता के बिम्ब में स्पर्श की प्रतीति निहित है। आभूषणों से अनुरंजित होने के कारण उसमें अन्तर्ध्वनित झंकार का बोध श्रावण-प्रतीति से सम्बद्ध है। इस प्रकार, कथाकार ने मातंगी के एक बिम्ब में अनेक बिम्बों का मोहक समाहार या मिश्रण उपस्थित किया है।
कला-जगत् में बिम्बों की प्रचुरता रहती है। किन्तु, प्राप्य सभी बिम्बों में चाक्षुष बिम्ब को कलाशास्त्रियों ने अत्यधिक उत्कृष्ट मानकर उसे पर्याप्त महत्त्व प्रदान किया है। कहना न होगा कि कलामर्मज्ञ कथाकार संघदासगणी की 'वसुदेवहिण्डी' में चाक्षुष बिम्बों की भरमार है। विशेषकर प्रमुख स्त्री-पात्रों या पुरुष-पात्रों के वर्णन में कथाकार द्वारा किया गया बिम्ब-विधान विस्मयाभिभूत करने की शक्ति से संवलित है। फिर भी, कथाकार मिश्रित बिम्ब प्रस्तुत करने में विशेष दक्ष प्रतीत होता है। यहाँ अटवी का एक मिश्रित बिम्ब दर्शनीय है।
“पत्ता य मो णाणाविहरुक्खगहणं, वल्लि-लयाबद्धगुच्छ-गुम्मं, गिरिकंदरनिझरोदरियभूमिभाग, णाणाविहसउणरडियसबाणुणाइयं, अईव भीसणकर, भिंगारविरसरसियपउर; कत्थइ वग्ध-ऽच्छभल्लघुरुघुरेंतमुहलं, वानर-साहामिएहिं रवमाणसई, पुक्कारिय-दुंदुयाइएण य कण्ण