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वसुदेवहिण्डी : भाषिक और साहित्यिक तत्त्व इन्द्र की कथा के ही जैनदृष्टि से पुनःसंस्कृत रूप का नव्योद्भावन हुआ है। इस प्रकार, 'आहरण' और 'उदाहरण-संज्ञक कथाएँ प्रायः समानान्तर विषय-प्रवृत्ति का ही द्योतन करती हैं।
खण्डकथाओं के अन्तर्गत कथाकार ने अनेक पात्रों की उत्पत्ति, वर्तमान भव और पूर्वभव की मनोरंजक कथाएँ उपन्यस्त की हैं। 'उत्पत्ति' शीर्षक कथाएँ वसुदेवहिण्डी में इस प्रकार हैं : 'अणाढियदेवस्सुप्पत्ती' (पृ.२५), 'वसुदेवचरियउप्पत्ती' (पृ.२६), गणियाणं उप्पत्ती' (पृ.१०३), 'विण्हुगीइगाए उप्पत्ती', (पृ.१२८); 'पिप्पलायस्स अहव्वेयस्स य उपत्ती' (पृ.१५१); 'आरियवेयउप्पत्ती' (पृ.१८३), 'सोयासपुरिसायस्स उप्पत्ती' (पृ.१९७), 'अणारियाणं वेदाणं उप्पत्तिकारणं' (पृ.१८५), 'धणुव्वेयस्स उप्पत्ती' (पृ.२०२), पुंडाए उप्पत्ती' (पृ.२१४); ‘अट्ठावयतित्थ-उप्पत्ती' (पृ.३०१) और 'हरिवंसकुलस्स उप्पत्ती' (पृ.३५६)। ___ 'पूर्वभव' और 'भव' शीर्षक कथाएँ इस प्रकार हैं : 'धम्मिल्लपुव्वजम्मकहाए सुनंदभवो' (पृ.७४); 'धम्मिल्लपुव्वजम्मकहाए सरहभवो' (पृ.७५); ‘पज्जुण्ण-संबपुवभवकहाए अग्गिभूइ-वाउभूइभवो' (पृ.८५); पज्जुण्णसंबपुव्वभवकहाए पुण्णभद्द-माणिभद्दभवो', (पृ.८९), 'पज्जुण्ण-संबपुव्वभवकहाए महु-केढवभवो' (पृ.९०), 'वसुदेवपुव्वभवकहाए नंदिसेणभवो' (पृ.११४), 'रत्तवती-लसुणिकापुव्वभवो' (पृ.२१९), 'सोमसिरीपुव्वभवो' (पृ.२२२); ‘अमियतेय-सिरिविजय असणिघोस-सुताराणं पुव्वभवो' (पृ.३२०), 'मणिकुंडली-इंदुसेण-बिंदुसेणाणं 'पुव्वभवो' (पृ.३२१), 'संतिजिणपुव्वभवकहाए अपराजियभवो' (पृ.३२४), 'कणयसिरीए पुव्वभवो' (पृ.३२६), 'संतिजिण-पुव्वभवकहाए वज्जाउहभवो' (पृ.३२९); 'संतिमतीए अजियसेणस्स य पुव्वभवो' (पृ.३३०), 'संतिजिणकहाए मेहरहभवो' (पृ.३३३), 'कुक्कुडजुयलपुव्वभवो' (पृ.३३३), 'चंदतिलयविदियतिलयविज्जाहरपुव्वभवो' (पृ.३३४); ‘सीहरहविज्जाहरपुव्वभवो' (पृ.३३६); 'पारावय-भिडियाणं पुव्वभवो' (३३८); सुरूवजक्खसंबंधो तप्पुव्वभवो य' (पृ.३३८); ललियसिरीपुव्वभवो' (पृ.३६२)
और 'कंसस्स पुव्वभवो' (पृ.३६८)। कहना न होगा कि 'भव' और 'पूर्वभव' तथा पूर्वोक्त 'सम्बन्ध-संज्ञक कथाएँ ही 'वसुदेवहिण्डी' की मूलकथा की स्नायुभूत हैं, जिनके माध्यम से सम्पूर्ण मूलकथा में आवर्जक कथारस अबाध रूप से प्रवाहित हुआ है।
इस प्रकार, महान् कथाकोविद संघदासगणी द्वारा आकलित खण्डकथाओं के सूक्ष्मतम भेदोपभेदों के सम्यक् नियोजन से 'वसुदेवहिण्डी' जैसी विशाल कथाकृति की संरचना हुई है। अवश्य ही, कथा और विकथा के यथोपन्यस्त भेदोपभेद कथातत्त्व की सैद्धान्तिक विवेचना के क्षेत्र में सर्वथा नई दिशा को प्रशस्त करते हैं। इससे कथाकार की कल्पनाशक्ति की विचित्रता के साथ ही उसकी अतिशय संवेदनशील और व्यापक गम्भीर दृष्टि का परिचय प्राप्त होता है।
साहित्यिक सौन्दर्य के विभिन्न पक्ष : .
'वसुदेवहिण्डी' की कथाओं में समाहित कला-तत्त्व की वरेण्यता के कारण ही इनका साहित्यिक सौन्दर्य अपना विशिष्ट मूल्य रखता है। विकसित कला-चैतन्य से समन्वित 'वसुदेवहिण्डी' की कथाएँ न केवल साहित्यशास्त्र, अपितु सौन्दर्यशास्त्र के अध्ययन की दृष्टि से भी प्रभूत सामग्री प्रस्तुत करती हैं। साहित्यिक सौन्दर्य के विधायक मूल तत्त्वों में पदशय्या की चारुता,