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________________ ३५ वसुदेवहिण्डी का स्रोत और स्वरूप इस प्रकार, 'वसुदेवहिण्डी' की स्फुट चर्चा किसी-न-किसी रूप में होती रही। सन् १९७० ई. में अहमदाबाद के लालभाई दलपतभाई भारतीय संस्कृति-विद्यामन्दिर से डॉ. जगदीशचन्द्र जैन की कृति, 'वसुदेवहिण्डी' की कतिपय उत्कृष्ट कथाओं के संग्रह - रूप में, 'प्राकृत जैनकथा-साहित्य' नाम से प्रकाशित हुई और फिर सन् १९७६ ई. में डॉ. जैन द्वारा सम्पादित - अनूदित 'वसुदेवहिण्डी' का अँगरेजी - संस्करण उक्त संस्कृति - मन्दिर से ही प्रकाश में आया। प्रस्तुत अँगरेजी-संस्करण 'वसुदेवहिण्डी' के अनुशीलन की दिशा में सर्वथा अभिनव प्रयास है । डॉ. जैन ने 'वसुदेवहिण्डी' के अपने उक्त अँगरेजी- संस्करण की भूमिका में सौजन्यवश इन पंक्तियों के लेखक द्वारा किये जानेवाले 'वसुदेवहिण्डी' के शोध प्रयास की चर्चा तो की ही है, उन्होंने इस कथाग्रन्थ के विभिन्न पक्षों पर कील, शिकागो, कैनबरा आदि युनिवर्सिटियों में होनेवाले शोध कार्यों का भी विवरण दिया है। इस प्रकार, 'वसुदेवहिण्डी' के अध्ययन का विकास जिस रूप में, विद्वज्जगत् में होता रहा, उस रूप में 'बृहत्कथाश्लोकसंग्रह' का नहीं हुआ । संस्कृत-ग्रन्थों के नव्योद्भावन की परम्परा का सातत्य प्रायः परिलक्षित नहीं होता । मूल 'बृहत्कथा' संस्कृत में लिखी गई होती, तो कदाचित् उसके इतने नव्योद्भावनों की सम्भावना नहीं होती । गुणाढ्य की मूल 'बृहत्कथा' के प्रचार के लिए राजा सातवाहन के प्रयास की चर्चा 'कथासरित्सागर' में की गई है। इस क्रम में उस राजा ने 'बृहत्कथा' की कई प्रतियाँ (देशी भाषा में) तैयार कराई होंगी, यह अनुमान भी असत्य नहीं है । 'बृहत्कथा' के चार प्रसिद्ध नव्योद्भावकों— बुधस्वामी, संघदासगणी, क्षेमेन्द्र और सोमदेव के समक्ष 'बृहत्कथा' की एक न एक प्रतिलिपि अवश्य विद्यमान रही होगी । इसका संकेत संस्कृत के नव्योद्भावकों ने प्रसंगवश कर दिया है; किन्तु, संघदासगणी इस बारे में बिलकुल मौन हैं। वह इतने पहुँचे हुए कथाकार थे कि उन्होंने 'बृहत्कथा' का जो नव्योद्भावन प्रस्तुत किया, और उसमें अनेक ऐसी मनोरंजक कथाएँ जोड़ीं कि वह एक स्वतन्त्र कथाग्रन्थ के रूप में उद्भावित हुआ । और तब, अश्वघोष और कालिदास के समान ही बुधस्वामी और संघदासगणी की पूर्वापरवर्त्तिता सहज ही विवादास्पद हो उठी । यहाँतक कि संघदासगणी के बारे में परिचय प्रस्तुत करना या उनके स्थान और काल का निर्धारण करना भी दुष्कर हो गया है। ऐसी स्थिति में प्रो. लाकोत के द्वारा हस्तलेख के आधार पर ' प्रस्तुत बुधस्वामी के कालनिर्णय (अष्टम-नवम शती) के परिप्रेक्ष्य में जैन विद्वानों के इस आग्रह को सहज ही यह अवसर मिल जाता है कि ‘बृहत्कथाश्लोकसंग्रह’ ‘वसुदेवहिण्डी' की परवर्त्ती रचना है । इस आग्रह का आधार प्राकृत और अपभ्रंश-साहित्य में अभिव्यक्त मानववाद की वह विद्रोही विचारधारा है, जिसने कई बार म्रियमाण संस्कृत-साहित्य को पुनरुज्जीवित किया है। पैशाची - प्राकृत में निबद्ध गुणाढ्य की 'बृहत्कथा' ने संस्कृत-निबद्ध 'बृहत्कथाश्लोकसंग्रह', 'कथासरित्सागर', 'बृहत्कथामंजरी' आदि के रूप में अपने नव्योद्भावनों द्वारा निश्चय ही संस्कृत-साहित्य को पुनरुज्जीवन प्रदान किया है। और फिर, प्राकृत की संस्कृत - पूर्ववर्त्तितामूलक वैचारिक मतवाद के अनुबन्ध में 'वसुदेवहिण्डी' को पूर्ववर्त्ती कहना १. डॉ. कीथ का अनुमान है कि हस्तलेखों की परम्परा से यह संकेत मिलता है कि उपलब्ध हस्तलेखों के लिखे जाने (प्राचीन समय से बारहवीं शती तक) से बहुत पहले ही उक्त (बृहत्कथाश्लोकसंग्रह) ग्रन्थ की रचना हो चुकी होगी । - 'सं. सा. का इतिहास', पृ. ३२४
SR No.022622
Book TitleVasudevhindi Bharatiya Jivan Aur Sanskruti Ki Bruhat Katha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShreeranjan Suridevi
PublisherPrakrit Jainshastra aur Ahimsa Shodh Samsthan
Publication Year1993
Total Pages654
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size18 MB
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