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वसुदेवहिण्डी : ' : भारतीय जीवन और संस्कृति की बृहत्कथा
मोक्षाकांक्षी पुरुष ही सम्यग्दर्शन प्राप्त करके इस संसार से अलग हो सकता है। इस प्रकार, इस कथानक में प्रतीक-प्रयोग का सुन्दर और व्यंजक उदाहरण प्रस्तुत हुआ है ।
दूसरी खण्डकथा (कथानक) एक भव में ही सम्बन्ध की विचित्रता के प्रतिपादन के निमित्त उपन्यस्त हुई है। इसमें भी कुबेरसेना नाम की गणिका की कथा का परिगुम्फन हुआ है, जिसमें गणिका द्वारा परित्यक्त उसके बेटे और बेटी का अज्ञात परिस्थिति में आपस में विवाह हो जाता है । कुबेरदत्ता को उसी समय अवधिज्ञान उत्पन्न होता है. और वह विरक्त होकर भिक्षुणी बन जाती है, किन्तु कुबेरदत्त पुनः अपनी माता कुबेरसेना गणिका के घर आकर उसके साथ भोगलिप्त होकर एक पुत्र को जन्म देता है । पुनः कुबेरदत्ता द्वारा वस्तुस्थिति का ज्ञान कराने पर कुबेरदत्त विरक्त हो उठता है और तपस्या द्वारा अपने शरीर का क्षय करके देवत्व को प्राप्त करता है। इस प्रकार उक्त दोनों कथानकों का कामकथा से धर्मकथा में उदात्तीकरण हुआ है। इससे स्पष्ट है कि कथाकार ने उक्त प्रकार की कथाओं को कथानक - कोटि में वर्गीकृत किया है, जो आगमिक कथा-सिद्धान्त के अनुसार 'विकथा' है ।
कथाकार ने 'वसुदेवहिण्डी' की सात उपकथाओं को 'कथा' शब्द से निर्देशित किया है । इनमें पहली कथा ('दुल्लहाए धम्मपत्तीए मित्ताणं कहा' : ४.२९) जम्बू के माता-पिता के साथ संवाद के क्रम में ही कही गई है, जिसमें कुछ युवा मित्रों ने एक तीर्थंकर के दर्शन करने और प्रवचन सुनने के बाद समवसरण में ही प्रव्रजित होकर उनसे दुर्लभ धर्म प्राप्त किया । यह कहानी सुनाकर जम्बू ने अपने माता-पिता से कहा : यदि मैं भी संसार से जल्दी विमुख नहीं होऊँगा, तो मुझे दुर्लभ धर्म की प्राप्ति कैसे होगी ।
दूसरी कथा ('इंदिय-विसयपसत्तीए निहणोवगयवानरकहा ' : ६.५) भी उक्त प्रसंग में ही आई है। कथा है कि एक जंगल में बन्दरों का राजा ( जूहवई = यूथपति) रहता था। एक बार किसी प्रौढ बलिष्ठ बन्दर ने उसे पराजित कर दिया और खदेड़कर बहुत दूर भगा दिया। भागते हुए बन्दरों के यूथपति ने एक पहाड़ की गुफा में शरण ली। गुफा में शिलाजीत का रस बह रहा था । भूख और प्यास से आक्रान्त वह बन्दर उसे पानी समझकर पीने लगा, पर शिलाजीत चिपक जाने से उसका मुँह बन्द हो गया। उसे छुड़ाने के लिए जब वह मुँह पर अपने हाथों को ले गया, तब हाथ भी चिपक गये । अन्त में, वह असमर्थ होकर मर गया । कथा के उपसंहार में बताया गया है कि इन्द्रिय-विषयों में फँसकर मनुष्य बन्दरों के यूथपति की भाँति दुःखमय मृत्यु को प्राप्त करता है।
तीसरी कथा ('पमत्ताए लद्धमहिसजम्मणो माहणदारयस्स कहा' : २२.७) जम्बू- प्रभव-संवाद प्रसंग में प्रस्तुत की गई है। कथा है कि विषय-प्रमादवश महिष- जन्म को प्राप्त एक ब्राह्मणपुत्र को कसाई ने खरीद लिया और उसे डण्डे से पीटता हुआ ले चला। महिष, यानी पूर्वभव के ब्राह्मण-पुत्र, का पिता तप करके देवता हो गया था । उसने उस (महिष : पुत्र) को अपना दिव्य रूप दिखलाया, जिससे महिष को, आवरणीय के क्षयोपशम से, जातिस्मरण हो आया। उसने पिता को पहचान लिया और वह एकबारगी चिल्ला उठा : 'पिताजी! मुझे बचाइए।' देवरूप पिता ने कसाई से कहा : 'इसे मत पीटो। यह मेरा पुत्र है।' कसाई बोला : 'इसने तुम्हारा कहना न मानकर गृहधर्म (आगारवास) स्वीकार किया था। इसलिए नहीं छोडूंगा।' इसके बाद महिष (ब्राह्मणपुत्र) ने जब गृहधर्म का मार्ग त्यागने की प्रतिज्ञा की, तब कसाई ने उसे छोड़ दिया। इसके बाद महिष ने