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वसुदेवहिण्डी : भारतीय जीवन और संस्कृति की बृहत्कथा और कामकथा दोनों का अन्तर्भाव होता है। संघदासगणी ने अर्थकथा और कामकथा का उदात्तीकरण धर्मकथा में प्रदर्शित किया है। अर्थ और काम के पूर्ण उपभोग के बाद आसक्तिरहित धर्माचरण ही सफल लोकयात्रा का परिचायक तत्त्व होता है। संघदासगणी द्वारा 'वसुदेवहिण्डी' में उपस्थापित अर्थकथा, कामकथा और धर्मकथा के साथ ही तीनों के मिश्रित रूप मिश्रकथाएँ भी रंजकता, रोचकता और रुचिरता की दृष्टि से अपना विशिष्ट मूल्य रखती हैं, फिर भी कामकथाओं में इन्द्रियरंजक उल्लास का ततोऽधिक मोहक और उत्तेजक साक्षात्कार होता है।
संघदासगणी ने अपनी कामकथाओं द्वारा 'त्रिकालवर्णनीय' रूप-सौन्दर्य के अतिरिक्त, सामाजिक यौन समस्याओं को भी अनेक कलावरेण्य आयामों में उपस्थापित किया है। काम मानव की सहज प्रवृत्ति है और यह प्रवृत्ति मानव-समाज की आदिम अवस्था, जैनदृष्टि से सृष्टि के आदिकाल की मिथुन-परम्परा के युग से ही काम करती आ रही है। मानव-हृदय में स्वभावतः जागरित होनेवाले काम और प्रेम का अन्योन्याश्रय सम्बन्ध है । मूलतः शरीर ही काम और प्रेम की आदि- भूमि है।' यही प्रेम और काम जब शरीर से ऊपर उठकर अशरीरी हो जाते हैं, तब मनुष्य राग-द्वेष से मुक्त होकर मोक्षधर्मी बनता है । 'वसुदेवहिण्डी' की कामकथाओं में ही प्रेमकथाओं का अन्तर्भाव हो गया है। संघदासगणी ने प्रेमी और प्रेमिका के उत्कट प्रेम, उनके परस्पर मिलन में उत्पन्न बाधाएँ, मिलन के लिए नाना प्रकार के प्रयल तथा अन्त में उनके मधुर मिलन का वर्णन बड़ी रोचकता से उपन्यस्त किया है। इसी क्रम में उन्होंने पूर्ण सौन्दर्य के वर्णन के निमित्त प्रेमिका के शरीर के अंग-प्रत्यंगकेश, मुख, भाल, कान, भौंह, आँख, चितवन, पयोधर, कपोल, वक्षःस्थल, नाभि, जघन, जंघा, नितम्ब
आदि का मनोहारी चित्र अंकित किये हैं साथ ही वसन-आभूषण, सज्जा-शृंगार आदि के भी रसघनिष्ठ वर्णन उपन्यस्त किया है । इस सन्दर्भ में कथाकार की सौन्दर्यानुभूति, कल्पना की उत्कृष्टता तथा बिम्बों, प्रतीकों और उपमानों की उदात्तता से संवलित वर्णन-चमत्कार अपनी विविधता, विचित्रता और अद्वितीयता के साथ उद्भावित हुआ है।
'कुवलयमाला' (अनुच्छेद ७) के रचयिता उद्योतनसूरि के कथा-सिद्धान्त के अनुसार भी 'वसुदेवहिण्डी' में कथाओं के पाँचों भेदों (सकलकथा, खण्डकथा, उल्लापकथा, परिहासकथा एवं संकीर्णकथा) का समाहार उपलब्ध होता है। सकलकथा के लक्षण के आसंग में देखें, तो स्पष्ट होगा कि वसुदेव की अभीष्ट-प्राप्ति-मूलक घटनाओं का विपुल विनियोग 'वसुदेवहिण्डी' में हुआ है। वसुदेव के व्यक्तित्व में वीर रस का प्राधान्य है, किन्तु उसके अंग-रूप में प्रायः सभी प्रकार के रसों का समन्वय उपलब्ध होता है। नायक की दृष्टि से भी वसुदेव का चरित अतिशय पुण्यात्मा, सहनशील और आदर्शोपस्थापक है। वसुदेव जैसे शलाकापुरुष नायक के जीवन में मानसवेग, अंगारक, हेप्फग आदि प्रतिनायक अपने कष्टदायक क्रियाकलाप से निरन्तर संघर्ष उपस्थित करते रहते हैं। जन्म-जन्मान्तर के संस्कारों से तो 'वसुदेवहिण्डी' के प्रायः सभी पात्र प्रभावित हैं।
'वसुदेवहिण्डी' के मुख्य इतिवृत्त के साथ-साथ खण्डकथाएँ भी अनुस्यूत हैं, और फिर इसमें वर्णित चारुदत्त के समुद्र-सन्तरण और उसी क्रम में शंकुपथ, अजपथ और वेत्रपथं की कठिन यात्रा १.(क) देह प्रेम की जन्मभूमि है'; 'उर्वशी' : डॉ. रामधारी सिंह दिनकर; प्रकाशक : उदयाचल, राजेन्द्रनगर,
पटना-१६; संस्करण : सन् १९८९ ई. अंक ३ : पृ. ४७ . (ख) प्राणेर परश चाय गायेर परश- रवीन्द्रनाथ टैगोर