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वसुदेवहिण्डी : भारतीय जीवन और संस्कृति की बृहत्कथा ___'वसुदेवहिण्डी' में कृदन्त-प्रत्ययों से निष्पन्न शब्दों का भी प्रयोग-प्राचुर्य उपलब्ध होता है। 'शत्' और 'शानच्' एवं 'क्त' प्रत्ययमूलक शब्दों का तो भूयिष्ठ प्रयोग हुआ है। शतृ और शानच् प्रत्ययों के कुछ उदाहरण : उदिक्खमाणी (पृ.१४), पसंसिज्जमाणो(पृ.१६), सीयमाणो (पृ.२२), दीसमाणो (पृ.२३), करेंतस्स (पृ.३७); उच्छरंतो (पृ.४५), आसासेंतो (पृ.५५), हम्ममाणो (पृ.८८), कुणंता (पृ.८८), वेरमणुसरंतो (पृ.९१), अपस्समाणो (प, १३९), पस्समाणी (पृ.१४१), जाणंती (पृ.१४१), हरतेण (पृ.१४५), कुणमाणी (१५५), परिहायमाण (पृ.१७१, थुणंता (पृ.१८५), विक्कोसमाणं, पलायमाणं (पृ.२२१); विवयमाणं (पृ.३२५); परिसिच्चमाणा (पृ.३२८) आदि-आदि। 'क्त' प्रत्ययान्त शब्द तो पदे-पदे प्रयुक्त हैं।
कृदन्त-प्रत्ययों में क्त्वा (त्ता), तुमुण (ऊण, तूण), ल्यप् (य), तव्य (अव्व), अनीय (इज्ज) आदि प्रत्ययों से निष्पन्न शब्दों की भी प्रचुरता 'वसुदेवहिण्डी' में प्राप्त होती है। इस प्रसंग में आदेज्ज, माणणिज्ज, वंदित्ता, गंतूण, आरुहिय, दायव्व आदि इस प्रकार के प्रत्ययवाले शब्द द्रष्टव्य हैं। इनके अतिरिक्त भावार्थक, कर्मार्थक, विकारार्थक, सम्बन्धार्थक प्रत्ययों के प्रयोगों की भूयिष्ठता भी उपर्युक्त वर्गीकृत उदाहरणों में परिलक्षणीय हैं । इस क्रम में तिक्खुत्तो, दोच्चं, वेयावच्चं, रययमयं, चउत्थं, कयरो, कुंभग्गशो, तेलोक्कं, कोउहल्लं आदि जैसे प्रयोग उदाहर्त्तव्य हैं। कथाकार ने 'तुमुण्' प्रत्ययात्मक शब्दों में तो बिलकुल संस्कृत शब्दों का ही यथावत् प्रयोग किया है। दो-एक उदाहरण द्रष्टव्य हैं : भोत्तुं (पृ. २४); आहेतुं (पृ. ४८); गंतुं (पृ. ५४) आदि। निश्चय ही, “वसुदेवहिण्डी' की भाषिक प्रवृत्ति का अध्ययन पृथक् प्रबन्ध का विषय है। यहाँ स्थालीपुलाकन्याय से ही यत्किंचित् निदर्शन प्रस्तुत किये गये हैं। इस प्रकार, यथाप्रस्तुत अध्ययन से स्पष्ट है कि 'वसुदेवहिण्डी' में संस्कृतयोनि अर्द्धमागधी या आर्ष प्राकृत की भाषिकी प्रवृत्ति का ही वैविध्य और बाहुल्य है।
इस सन्दर्भ में ज्ञातव्य है कि प्राचीन आगमों की आर्ष प्राकृत या अर्द्धमागधी अर्वाचीन भाषाशास्त्र या व्याकरण के अनुशासन की दृष्टि से खूब खरी नहीं उतरती। 'वसुदेवहिण्डी' की भाषा भी आगमिक आर्ष प्राकृत के प्रभाव और वैशिष्ट्य से संवलित है, इसलिए इसके भाषिक प्रयोग-वैचित्र्य को आर्ष या आगमिक प्रयोग मानना अधिक संगत होगा।
संघदासगणी की 'वसुदेवहिण्डी' की आर्ष प्राकृत भाषा में संस्कृत का मिश्रण भी सहज ही सम्भावित है; क्योंकि कुछ विद्वानों का मत है कि ईसवी की प्रथम शती के आसपास एक प्रकार की मिश्रित संस्कृत का प्रचार हो रहा था, जिसका स्वरूप उत्कल के चक्रवर्ती जैन राजा खारवेल के हाथीगुम्फा-अभिलेख (ई.पू. प्रथम शती) में उपलब्ध होता है। इस अभिलेख की प्राकृत में 'ण' की जगह 'न' का प्रयोग किया गया है । 'वसुदेवहिण्डी की भाषा उक्त लेख की भाषा के उत्तरवर्ती विकसित रूप का प्रतिनिधित्व करती है। खारवेल के दो लेख तुलना के लिए उदाहर्त्तव्य है :
१. नमो अरहंतानं (1) नमो सव-सिधानं (1) ऐरेण महाराजेन महामेघवाहनेन चेति-राज-व (.) स-वधनेन पसथ-सुभ-लखनेन चतुरंत-लुठ(ण)-गुण-उपितेन कलिंगाधिपतिना सिरिखारवेलेन।
२. कपरूखे हय-गज-रथ-सह यति सव-घरावास... सव-गहणं च कारयितुं ब्रह्मणानं ज (य)-परिहारं ददाति (1) अरहत.... (नवमे च वसे) ... ।' १.विशेष द्र. डॉ. वासुदेव उपाध्याय : 'प्राचीन भारतीय लेखों का अध्ययन' : मूललेख : पृ. २६