________________
५०६
वसुदेवहिण्डी : भारतीय जीवन और संस्कृति की बृहत्कथा द्या-पारगः (पृ.३१५), अमियवेओ< अमितवेग: (पृ.३१८); नागपुरं< नागपुरं (पृ.३३८); हेप्फओ< हेप्फग: (पृ.३५८) आदि-आदि। ग का त में परिवर्तन भी 'वसुदेवहिण्डी' की भाषा में प्राप्य है। यथा : कयदेहच्चातो< कृतदेहत्यागः (१.२२) ।
३. अर्द्धमागधी में दो स्वरों के बीच आनेवाले असंयुक्त 'च' और 'ज' के स्थान में 'त' और 'य' होने की प्रकृति पाई जाती है। ऐसे शब्द 'वसुदेवहिण्डी' में भी प्राप्य हैं। उदाहरण : .
पयासुहे< प्रजासुखे (पृ.२); रायगिहं< राजगृहं (पृ.२) पव्वयामि< प्रव्रजामि (पृ.४); सरयपुण्णिमायंदो< शरत्पूर्णिमाचन्द्रः (पृ.७); पओयणं< प्रयोजनं (पृ.७); मणुयलोयसारा< मनुजलोकसारा: (पृ.७); धम्ममायरंतो< धर्ममाचरन्त: (पृ.८); अयगरो< अजगरः (पृ.८); नियगविण्णाण< निजकविज्ञानं (पृ.१०); वाणियओ< वाणिजक: (पृ.१५); सूइयारोगेण < सूचिकारोगेण (चि का इ : पृ.१७); वयणेहि< वचनैः (पृ.१८), राया< राजा (पृ.२०), पाणभोयणेणं< पानभोजनेन (पृ.२५), उपयारेण< उपचारेण (पृ.२७); तेयस्सी< तेजस्वी (पृ.१५८); आयरिया< आचार्या: (पृ.२८); वायाए< वाचा (पृ.३२); सोयमाणा< शोचन्ती (पृ.३६); परियण< परिजन (पृ.३९); रायसिरिं< राजश्रीं (पृ.३९); पूया< पूजा (पृ.४१); सयण< स्वजन (पृ.४६); पोत्थयवायणकुसला< पुस्तकवाचनकुशला (पृ.६८); साहु- वयणं साधुवचनं (पृ.६९), रायमग्ग< राजमार्ग (पृ.६९), आयंबिलतवफलविसेसे< आचाम्लतपःफलविशेषे (पृ.७२); अयलो< अचल: (पृ.७७), जुयराया< युवराज: (पृ.७९), नमुइं< नमुचिं (चि का इ : पृ.७९); गयपुरं< गजपुरं (पृ.८९); पओअणं< प्रयोजनं (य-श्रुतिरहित, पृ.१२७), रायत्तं< राजत्वं (पृ.१२८), रयतवालुयं< रजतवालुकं (पृ.१३४); रायपुरं< राजपुरं (पृ.१४८), सक्कज्झयं< शक्रध्वजं (पृ.१५९); रुयगसहा< रुचकसहा (पृ.१६०); णवजोयणवित्थिण्णा< नवयोजन-विस्तीर्णा (पृ.१६२), रायभवणं< राजभवनं (पृ.१७९); वातिगजणपरिवुडो< वाचिकजनपरिवृत: (पृ.२०१); कयातिर कदाचित् (पृ.४९); तिगिच्छियं< चिकित्सितं (पृ.१०३); मिगद्धओ< मृगध्वज: (य-श्रुतिरहित, पृ.२७०-२७१); पयावई< प्रजापति: (पृ.२७६), पव्वतितो< प्रव्रजित: (पृ.२९८) आदि-आदि।
'वसुदेवहिण्डी' में प्राप्य अर्द्धमागधी की भाषिक प्रवृत्ति और प्रकृति के अन्य उदाहरण इस प्रकार हैं।
४. दो स्वरों के मध्यवर्ती त की यथावत् स्थिति और कहीं-कहीं त का य में परिवर्तन :
अणुजाणंतु< अनुजानन्तु (पृ.१); भयवन्तं< भगवन्तं (पृ.३); सुणंति< शृण्वन्ति (पृ.५); अंतरा< अन्तरा (पृ.५); विदितं< विदितं (पृ.६), वातविधूया< वातविधूता: (पृ.८), भणितो< भणित: (पृ.९), पिता पितामहो वा< पिता पितामहो वा (पृ.१४), पियरं< पितरं (पृ.१४); गतो< गत: (पृ.१५: प्रायः सर्वत्र); ततो< तत: (पृ.१७ : प्रायः सर्वत्र); धम्मदूतो< धर्मदूतः (पृ.१७), निवसति< निवसति (पृ.१९: क्रियापदों में त की अनेकत्र यथास्थिति); सुमरति< स्मरति (पृ.१९); सहितो< सहितः (पृ.२३); संपूइया सम्पूजिता (पृ.२९); निवेदेति< निवेदयति (पृ.२९); परिवसति< परिवसति (पृ.२९); होति< भवति (पृ.३१); आगतो, जातो< आगतः जातः (पृ.३१: प्राय: सर्वत्र); कतो< कृत: (पृ.३५), पडिसुयं< प्रतिश्रुतं (पृ.३९) गंतुं< गन्तुम् (पृ.५५) परिसंठवेति< परिसंस्थापयति (पृ.५६), तिप्पति< तृप्यति (पृ.६४), सेता< श्वेता (पृ.६९); अच्छति< अस्ति (पृ.६९), विसज्जेति< विसर्जति (पृ.७५), रूववती< रूपवती (पृ.७८); विणयवती< विनयवती (पृ.७९); उवदिसति< उपदिशति