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वसुदेवहिण्डी : भाषिक और साहित्यिक तत्त्व
एगो - एक: (पृ. ४); लोगधम्मो < लोकधर्म: (पृ. १४), सगडाणि < शकटानि (पृ. १५), कागिणीनिमित्तस्स < काकिणीनिमित्तस्य (पृ. १५) उपयारो - उपकारः (पृ. १८); परलोयहिअं< परलोकहितं (पृ.२३); पारणगकाले< पारणककाले (पृ. २५), परिचत्तो < परित्यक्तः (पृ. २५); मिगपोयतो < मृगपोतकः (पृ.२४३), वागरिए < व्याकृते (पृ. २६), पगारेणं < प्रकारेण (पृ. २८), बिब्बोय < बिब्बोक (पृ. २८); निययाणं < निजकानां (पृ.३१); असोगवरपायवस्स< असोकवरपादपस्य (पृ.३५); पगयं < प्रकृतं (पृ.३८); खिंखिणिमुह < किंकिणीमुख (पृ.१३६), खीलेहिं < कीलैः (पृ.१३८); वियड < विकट (पृ.४५); वयणीययं < वचनीयकं (पृ. ८०), सत्ताहिगा < सत्त्वाधिका: (पृ. ८६); पडियारं < प्रतिकारं (पृ.८७); सावया < श्रावका: (पृ.८९), कोउगाणि< कौतुकानि (पृ. ९५ ); पगासियभावो< प्रकाशितभाव: (पृ.११५); कडगमाणेऊण< कटकमानीय (पृ. १२७); लोकसुई< लोकश्रुतिः (पृ.१३२); आगासउप्पयणेण < आकाशोत्पतनेन (पृ. १३७); णागरया - नागरका: (पृ.१५५), अम्बरतिलओ < अम्बरतिलकः (पृ. १७४); पच्चलो < पक्वलः (पृ.२०७); तिगिच्छियं चिकित्सितं (पृ.२११), अंगारओ< अंगारकः (पृ. २१७); तित्थयरदंसणं तीर्थंकरदर्शनं (पृ. ५); विवाह को - उयं< विवाहकौतुकं (पृ.२२५); एगागी < एकाकी (पृ. २३८), धनपुंजतो < धनपुंजक: (पृ.४४), नारतो नारतेण< नारक: नारकेण (पृ. २७१), मूअत्तणं < मूकत्वं (पृ. २२३); सेणियो< श्रेणिकः (पृ.२५); कामपडागा< कामपताका (पृ. २९३); कामपडाया < कामपताका (पृ. २९४), नेरइयावास < नैरयिकावास (पृ.२७१), इयरए < इतरके (बहुव. पृ. ३०७), सुत्तिमतीए < शुक्तिमत्या: (पृ. १९१) आदि-आदि ।
इस नियम का कथाकार ने बहुश: उल्लंघन भी किया है और 'क' को अपरिवर्तित रखा है। जैसे: एक्कं (पृ.३४); दिवाकरदेवेणं (पृ.१९३); जणकस्स (पृ. २४१ ); गुलिकाओ (पृ.२१८); णीयकगुणो = निजकगुण: (पृ. २०२), साकेए नयरे (पृ. १८५), विमलोदकं, वरुणोदकं, वरुणोदिका (पृ.२५०); कारवत्तिका< कारपत्रिका (पृ.३५४), रेणुका, रेणुकाए (पृ.२३८); अंगारको (पृ.२१७), कई कैकेय्या (पृ. २४१) आदि-आदि। इस प्रकार, कथाकार ने अनेकानेक शब्दों का संस्कृत मूलवत् प्रयोग किया है। इससे स्पष्ट ही 'वसुदेवहिण्डी' की भाषा में महाराष्ट्री की भाँति व्यंजन- बहिष्कार की प्रचुरता नहीं है, अपितु उसकी अल्पता की ओर ही प्रायः सहज झुकाव दिखाई पड़ता है।
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२. अर्द्धमागधी में व्याकरणिक अनुशासन के अनुसार, दो स्वरों के बीच का असंयुक्त 'ग' यथावत् रहता है और कहीं-कहीं 'य' और 'य' - श्रुतिरहित 'अ' भी होता है । 'वसुदेवहिण्डी' में प्राप्य इसके कतिपय उदाहरण निम्नांकित हैं :
आगओ < आगतो (पृ.६०), आगतमग्गेण < आगतमार्गेण (पृ. ३); नगरमागतो - नगरमागतः (पृ.३), ' उवगयं < उपगतं (पृ. ३९), नयरस्स< नगरस्य (पृ.३९); आगमणं - आगमनं (पृ.३६), पयागं< प्रयागं (पृ.४३); नयरीए < नगर्याम् (पृ.७९); आगतो < आगत: (पृ.७९), सागरचंदो< सागरचन्द्र: (पृ.४९); गिरिनयरं गिरिनगरं (पृ.५०); सायरसेण< सागरसेन (पृ. १७६ ) ; सुगंध - मुहिं सुगन्धमुखीम् (पृ. २२०); वरतुरयकुंजरे < वरतुरगकुंजरा: (पृ.२४६); णागराया < नागराजः (पृ.२५२); मिगो < मृग: (पृ. २५५); संगमं - संगमं (पृ. २५५); पोरागमसत्थं < पौरागमशास्त्रं (पृ.२५९); गगणवल्लहे < गगनवल्लभे (पृ. २६२), उरगो < उरग: (पृ. २७७), छगलो < छगल: (पृ.२७८); अणगारो< अनगार: (पृ.२८६), अरोगो< अरोग: (पृ. २९५), सगरो - सगरः (पृ. ३००), धरणिगोयरस्य < धरणिगोचरस्य (पृ. ३११); आगमे < आगमे (पृ. ३१४), जोइसविज्जापारगो < ज्योतिर्वि