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________________ ५०३ वसुदेवहिण्डी : भाषिक और साहित्यिक तत्त्व इसीलिए, 'वसुदेवहिण्डी' की भाषा महाराष्ट्री की अपेक्षा अर्धमागधी के अधिक निकट है। इसके प्रायोगिक प्रमाण आगे उपन्यस्त होंगे। डॉ.पिशल' ने कोलबुक के मत के परिप्रेक्ष्य में अपनी भाषिक विवेचना को विस्तार देते हुए यह लिखा है कि मागधी-प्राकृत संस्कृत से निकली है और यह वैसी ही भाषा है, जैसी सिंहलदेश की पालि-भाषा। मागधी और अर्द्धमागधी ये दो नाम स्थान-भेद से पड़े हैं। तीर्थंकरों की भाषा अर्धमागधी का मूलस्थान पश्चिम मगध और शूरसेन (मथुरा) का मध्यवर्ती क्षेत्र अयोध्या मानी गई है; क्योंकि आदि तीर्थंकर ऋषभदेव अयोध्या के निवासी थे। प्रदेश की दृष्टि से अधिकांश विचारक इसे काशी-कोशल-प्रदेश की भाषा स्वीकार करते हैं। मागधी विशुद्ध मगध-प्रदेश या पूर्वमगध की भाषा थी। सिंहल में पालि को ही मागधी माना गया है। डॉ. नेमिचन्द्र शास्त्री के अनुसार, अर्द्धमागधी की भाँति, पालि का रूप-गठन अनेक बोलियों के मिश्रण से हुआ है और इसपर छान्दस प्रभाव भी पूर्णतया सुरक्षित है। जैसा पहले कहा गया, पालि मूलतः प्राकृत का ही । एक प्रकार है। मागधी-प्राकृत या अर्द्धमागधी और महाराष्ट्री की भिन्नता और अभिन्नता के सम्बन्ध में विरोधी और समर्थक मतों का बाहुल्य है। लास्सन का मत है कि मागधी-प्राकृत और महाराष्ट्री एक ही भाषाएँ हैं। याकोबी का सिद्धान्त है कि जैनशास्त्रों की भाषा बहुत प्राचीन महाराष्ट्री है। वेबर का कहना है कि अर्द्धमागधी और महाराष्ट्री के बीच कोई निकटतर सम्बन्ध नहीं है। ई. म्यूलर अर्द्धमागधी को प्रस्तर-लेखों की मागधी से सम्बद्ध मानता है। डॉ. पिशल ने अर्द्धमागधी पर महाराष्टी का प्रभाव पड़ने की चर्चा करते हुए लिखा है कि सम्भव है. देवर्द्धिगणी की अध्यक्षता में वलभी में जो सभा जैनशास्त्रों को एकत्र करने के लिए बैठी थी या स्कन्दिलाचार्य की अध्यक्षता में मथुरा में जो सभा हुई थी, उसने मूल अर्द्धमागधी भाषा पर पश्चिमी प्राकृत-भाषा महाराष्ट्री का रंग चढ़ा दिया हो। यह बहुत सम्भव है कि अर्द्धमागधी पर महाराष्ट्री का रंग वलभी में गहरा जम गया हो। फिर भी, ऐसा नहीं मालूम होता कि महाराष्ट्री का प्रभाव विशेष महत्त्वपूर्ण रहा होगा; क्योंकि अर्द्धमागधी का जो मूल रूप है, महाराष्ट्री से अस्पृष्ट है। इसके अतिरिक्त, डॉ. पिशल ने यह भी लिखा है कि जैन महाराष्ट्री पर अर्द्धमागधी ने अपना पूरा प्रभाव डाला है; क्योंकि अर्द्धमागधी की अधिकांश भाषिक विशेषताएँ जैन महाराष्ट्री में मिलती हैं। इससे स्पष्ट है कि डॉ. पिशल अर्द्धमागधी को जैन महाराष्ट्री का उपजीव्य मानते हैं और यही कारण है कि भाषाशास्त्रियों ने 'वसुदेवहिण्डी' की अर्द्धमागधी में जैन महाराष्ट्री की भाषिक विशेषताओं को देखकर उसकी भाषा को प्राचीन जैन महाराष्ट्री कहा है। डॉ. हॉर्नले के अनुसार, अर्धमागधी ही प्राचीन आर्ष प्राकृत है, जिसका अर्वाचीन रूप महाराष्ट्री है। इसलिए, 'वसुदेवहिण्डी' की भाषा में प्राप्त भाषिक प्रकृति के आधार पर इसे 'आर्ष प्राकृत, का प्राचीन रूप कहना अधिक उपयुक्त होगा। हाँ, यह और बात है कि इसमें अर्वाचीन महाराष्टी की भी प्रकति उपलब्ध होती है। ___डॉ. पिशल के ही अनुसार, यह महत्त्वपूर्ण तथ्य भी उभरकर सामने आता है कि श्वेताम्बरों के आगमेतर ग्रन्थों की भाषा अर्द्धमागधी से बहुत भिन्नता रखती है। इसीलिए, याकोबी ने इस १. प्राकृत-भाषाओं का व्याकरण' (वही) : पृ.३१ (विषय-प्रवेश) २.'प्राकृत-भाषा और साहित्य का आलोचनात्मक इतिहास' (वही): पृ.२८ ३. प्राकृत-भाषाओं का व्याकरण' (वही) : पृ. ३२-३३ (विषय-प्रवेश) ४. उपरिवत् : पृ.३६-३७
SR No.022622
Book TitleVasudevhindi Bharatiya Jivan Aur Sanskruti Ki Bruhat Katha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShreeranjan Suridevi
PublisherPrakrit Jainshastra aur Ahimsa Shodh Samsthan
Publication Year1993
Total Pages654
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size18 MB
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