SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 511
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ वसदेवहिण्डी में प्रतिबिम्बित लोकजीवन होता है, तब स्वरूप-दर्शन द्वारा धीरे-धीरे पुराने कुसंस्कारों को काटकर स्वरूप-स्थिति-रूप मुक्ति को प्राप्त कर लेता है। कभी-कभी किसी विशेष आत्मा में स्वरूप-ज्ञान की इतनी तीव्र ज्योति जग जाती है, या ब्राह्मण आगमिकों के शब्दों में, इतना तीव्र शक्तिपात होता है कि उसके महाप्रकाश में कुसंस्कारों का पिण्ड क्षण-भर में ही विलीन हो जाता है और वह आत्मा वर्तमान शरीर में ही पूर्णवीतराग और पूर्णज्ञानी बन जाता है। यही जीवन्मुक्त की अवस्था है। इस अवस्था में आत्मगुणों के घातक संस्कारों का समूल नाश हो जाता है। केवल शरीर धारण करने के कारणभूत कुछ अघातिया (संसार की निमित्तभूत सामग्री से सम्बद्ध) संस्कार शेष रहते हैं, जो शरीर के साथ समाप्त हो जाते हैं और तब वह आत्मा पूर्णतया सिद्ध होकर अपने स्वभावानुसार ऊर्ध्वगमन करके लोकान्त में जा पहुँचता है। यही आत्मा की मुक्ति, मोक्ष या निर्वाण है। ___ कथाकार संघदासगणी ने भी अपनी सहज जैनदृष्टि से मोक्ष का विपुल वर्णन किया है। उन्होंने यथासन्दर्भ विभिन्न कथाप्रसंगों में मोक्ष को परिभाषित भी किया है। जैसे : 'निर्वाण क्षीणकर्मांश और लघु होता है' (धम्मिल्लचरित : पृ. ७५)। 'विराग-मार्ग में प्रतिपन्न, तपःशोषित कलिकलुषवाले तथा संयम द्वारा निरुद्धास्रव ज्ञानी का लघुकर्मता के कारण ऊर्ध्वगमन ही निर्वाण है' (ललितश्रीलम्भ : पृ. ३६१) । 'निर्वाण की दशा में आत्मा बाह्याभ्यन्तर घाति-अघाति कर्मों से रहित, केवलज्ञान से सम्पन्न तथा विधूतरज हो जाता है' (केतुमतीलम्भ : पृ. ३४२) आदि । जैनदर्शन की, मोक्षगमन की प्रक्रिया के अनेक प्रसंग कथा-विकास की दृष्टि से कथाकार ने उपन्यस्त किये हैं और इस क्रम में उन्होंने जैनदर्शन का सार-संक्षेप ही उपस्थापित कर दिया है, जिसका सर्वोत्तम उदाहरण शान्तिस्वामी का प्रवचन (केतुमतीलम्भ : पृ. ३४२) है। इसमें संघदासगणी ने जैनदर्शन के समस्त तत्त्वों का एकत्र समाहार किया है, जिससे पाठकों को जैनदर्शन का समग्र तत्त्व एक दृष्टि में ही हस्तामलक हो जाता है। ___कथाकार ने वनस्पतियों में भी जीवसिद्धि (बन्धुमतीलम्भ : पृ. २६७) का प्रदर्शन करके प्राणियों के वनस्पति से मनुष्ययोनि में जन्मग्रहण का निरूपण किया है और इस प्रकार, आत्मा की व्यापकता को शास्त्रीय विचक्षणता के साथ प्रमाणित किया है । हिंसा और अहिंसा के विवेचन में तो कथाकार ने शास्त्रार्थ-शैली द्वारा अपनी तलस्पर्शी सूक्ष्मेक्षिका का परिचय देते हुए, उस विषय के विशिष्ट तार्किक व्यालोचन के निमित्त उसे 'मांसभक्षण-विषयक वादस्थल' ('मंसभक्खणविसयं वायत्थलं) नाम से शीर्षित किया है (बालचन्द्रालम्भ : पृ. २५९)। कथाकार ने दार्शनिक मतवाद की विवेचना के क्रम में सांख्यदर्शन के प्रकृति-पुरुषविषयक विचार का भी अपनी जैन दृष्टि से नव्योपस्थापन किया है। सांख्यदर्शन में दो प्रमुख तत्त्व माने गये हैं—प्रकृति और पुरुष । प्रकृति संसार का मूल कारण है, अतः इसे मूलप्रकृति कहते हैं। 'श्वेताश्वतरोपनिषद्' (४.५) के अनुसार, प्रकृति अजा (किसी से न उत्पन्न होनेवाली) और एका (अकेली) है, साथ ही लोहित (रजस्)-शुक्ल (सत्त्व)-कृष्ण (तमस्)-रूपा त्रिगुणात्मिका है। सत्त्वरजस्तमोरूप तीन गुणों की साम्यावस्था को प्रकृति कहते हैं। यह अपने अनुकूल त्रिगुणात्मक अनेक पदार्थों की सृष्टि करती है। बद्ध पुरुष इसी प्रकृति की परिचर्या में आसक्त रहता है और उसके सुख-दुःख-मोहात्मक कार्य महत् आदि (विकारों) को अपना समझकर उसी के बीच परिभ्रमण करता रहता है। दूसरा मुक्त पुरुष इसे छोड़ देता है । पुरुष द्वारा भुक्ता होने के कारण इसे 'भुक्तभोगा'
SR No.022622
Book TitleVasudevhindi Bharatiya Jivan Aur Sanskruti Ki Bruhat Katha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShreeranjan Suridevi
PublisherPrakrit Jainshastra aur Ahimsa Shodh Samsthan
Publication Year1993
Total Pages654
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size18 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy