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वसुदेवहिण्डी में प्रतिबिम्बित लोकजीवन
४६१ उल्लेख पहले किया जा चुका है। इन क्षेत्रों में मध्यवर्ती विदेह-क्षेत्र सर्वाधिक विशाल है और उसी के मध्य में मेरुपर्वत है। भरतक्षेत्र में हिमालय से निकलकर गंगानदी पूर्व समुद्र की ओर तथा सिन्धु पश्चिम समुद्र की ओर बहती है। मध्य में विन्ध्यपर्वत है। इन नदी-पर्वतों के द्वारा भरत-क्षेत्र के छह खण्ड हो गये हैं, जिनको जीतकर अपना वशंवद बनानेवाला सम्राट् ही षट्खण्ड-चक्रवर्ती कहलाता है।
संघदासगणी ने आगम-प्रोक्त इस विशाल नन्दीश्वरद्वीप तथा पूर्वोक्त कण्ठकद्वीप आदि के अतिरिक्त भी अन्य कई द्वीपों का वर्णन किया है। जैसे : रलद्वीप, सुवर्णद्वीप, सिंहलद्वीप, लंकाद्वीप आदि । कथाकार ने लिखा है कि रत्नद्वीप से भारुण्ड पक्षी आते हैं और रत्नद्वीप से ही यात्री वैताढ्यपर्वत के निकटवर्ती सुवर्णद्वीप या सुवर्णभूमि जाते हैं। इसके अतिरिक्त, चारुदत्त सम्पत्ति अर्जित करने के निमित्त सिंहलद्वीप भी गया था। डॉ. मोतीचन्द्र ने रत्नद्वीप को ही सिंहलद्वीप तथा सुवर्णद्वीप को ही सुमात्रा या मलय-एशिया मानते हुए लिखा है कि जातकों में समुद्रयात्राओं के अनेक उल्लेख मिलते हैं। बहुत-से व्यापारी सुवर्णद्वीप, यानी मलय-एशिया और रत्नद्वीप, अर्थात् सिंहल की यात्रा करते थे। सिंहलद्वीप ही लंकाद्वीप था, जहाँ से नीलम का आयात होता था। यह स्पष्ट है कि सुवर्णद्वीप और रत्नद्वीप अपने नामों के अनुसार ही सोने और रत्नों की आकरभूमि थे। प्राचीन काल में लंकाद्वीप जाकर रल अर्जित करने की कथाएँ भी मिलती हैं। संघदासगणी ने भी लिखा है कि कंचनपुर के दो वणिक् रत्ल अर्जित करने के निमित्त लंकाद्वीप गये थे (गन्धर्वदत्तालम्भ : पृ.१११) । इसलिए, लंकाद्वीप ही सही अर्थ में रलद्वीप था। इसके अतिरिक्त, संघदासगणी ने सोम, यम आदि अपने सौतेले भाइयों के विरोध के कारण ऊबे हुए विद्याधर रामण (रावण) के भी लंकाद्वीप में जाकर रहने का उल्लेख किया है (मदनवेगालम्भ : पृ.२४०) । इससे यह संकेतित होता है कि रामण ने रल और सुवर्ण की प्रचुरता तथा सुलभता को दृष्टि में रखकर ही लंका में रहना पसन्द किया था। यह तो पुराण-प्रसिद्ध है कि रावण की राजधानी लंकापुरी सोने से ही निर्मित थी।
___ इस तरह कथाकार ने लौकिक और अलौकिक, दोनों प्रकार के द्वीपों का मनोरम वर्णन उपस्थित करते हुए अपनी कथा-रचना की प्रक्रिया में काल्पनिकता और वास्तविकता के अद्भुत सम्मिश्रण से काम लिया है। और इस प्रकार, उनके द्वारा उपन्यस्त कथा में निहित भौगोलिकता के तत्त्व में दिव्यादिव्यता का अतिशय चमत्कारी रूप-विधान हुआ है।
पर्वत :
भौगोलिक तत्त्वों में पर्वतों का पांक्तेय स्थान है। संघदासगणी ने अपनी महत्कथा में भौगोलिक वातावरण प्रस्तुत करने के क्रम में अनेक (लगभग ४३) दिव्यादिव्य पर्वतों का उल्लेख किया है, जिनमें यहाँ कतिपय प्रसिद्ध पर्वतों का विवरण अपेक्षित होगा। 'वसुदेवहिण्डो' में
अंगमन्दर (गन्धर्वदत्तालम्भ : पृ.१२९) या मन्दर (नीलयशालम्भ : पृ.१६१) पर्वत को मेरुपर्वत का प्रतिरूप कहा गया है। कथाकार ने लिखा है कि मन्दर पर्वत की गुफाएँ कल्पवृक्षों से आच्छादित
१. द्रष्टव्य : भारतीय संस्कृति में जैनधर्म का योगदान' : पृ. २९४-९५ २.द्रष्टव्यः 'सार्थवाह' (वही) : पृ.५९