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वसुदेवहिण्डी : भारतीय जीवन और संस्कृति की बृहत्कथा का सम्बन्ध डॉ. मोतीचन्द्र ने ताशकुरगन से जोड़ा है और विजया नदी का सम्बन्ध सीर दरिया से। इषुवेगा उनकी दृष्टि में वंक्षु नदी है। मध्य एशिया के रहनेवालों में काशगर के खस, मंगोल के हूण और उसके बाद चीनियों से चारुदत्त की भेंट हुई। मध्य एशिया के तंगणों (टंकणों) से उसने व्यापार भी किया था। उपर्युक्त यात्रापथों के विभिन्न नामों का उल्लेख पुराणों तथा बौद्धों के कथा-साहित्य में, विशेष कर 'महाभारत', 'महानिद्देश' और 'मिलिन्दपज्ह' में भी हुआ है। पुराणों में 'वायुपुराण' और 'मत्स्यपुराण' ने उक्त यात्रापथों का विशेष रूप से उल्लेख किया है।
संघदासगणी ने अन्यत्र भी जलपथ के संचार-साधनों में नावों और जहाजों की चर्चा की है एवं कष्टप्रद समुद्र-यात्रा की निर्विघ्नता के लिए पूजा-विधान का उल्लेख किया है। कथा है कि एक दिन पद्मिनीखेट का निवासी सार्थवाह भद्रमित्र जहाज से समुद्रयात्रा करने की इच्छा से सिंहपुर पहुँचा। भद्रमित्र ने सोचा : समुद्रयात्रा अनेक विघ्नों से भरी होती है। सारा धन साथ लेकर जाना श्रेयस्कर नहीं होगा, इसलिए किसी विश्वासी घर में उसे रख देना उचित होगा। उसने श्रीभूति पुरोहित के घर अपने धन को रखने की इच्छा व्यक्त की। श्रीभूति ने बड़ी कठिनाई से धन रखना स्वीकार किया और सील-मुहर करके उसकी थाती को सुरक्षित कर दिया। सार्थवाह भद्रमित्र विश्वस्त होकर चल पड़ा और 'वेलापत्तन' (बन्दरगाह पर) पहुँचा। जहाज चलने को तैयार हुआ। यात्रा की निर्विघ्नता के लिए पूजा की गई। समुद्री हवा की अनुकूलता से एक पत्तन (बन्दरगाह) से दूसरे पत्तन की यात्रा करते हुए भद्रमित्र ने सम्पत्ति अर्जित की (बालचन्द्रालम्भ : पृ. २५३)।
इस कथाप्रसंग से तत्कालीन अर्थ-व्यवस्था के महत्त्वपूर्ण पक्ष धन को सील-मुहर करके ('मुहितो निक्खित्तो निक्खेवो') सुरक्षित रखने का संकेत कथाकार ने किया है। उस युग में व्यापारियों द्वारा राजकोष की वृद्धि के लिए चुंगी चुकाने की भी प्रथा प्रचलित थी। धम्मिल्लचरित (पृ. ६२) में कथा है कि धनवसु (ताम्रलिप्ति के धनपति सार्थवाह का पुत्र) की समुद्री नाव जब चली, तब वह अनुकूल समुद्री हवा पाकर अभीप्सित देश पहुँच गई । वहाँ लंगर डाल दिया गया और पाल भी उतार दिया गया। समुद्री यात्री जहाज से नीचे उतरे और उसके भीतर से माल उतारा गया। चुंगी दे दी गई। उसके बाद समुद्री व्यापारियों (सांयात्रिको) ने वहाँ व्यापार करना शुरू किया ('दिण्णा य रायदाणा। तत्थ य संजत्तयवाणियया ववहरिउं पक्त्ता')।
संघदासगणी ने स्थलपथ के संचार-साधनों में बैलगाड़ी के अतिरिक्त खच्चर, ऊँट, गधे, हाथी, बकरे आदि का भी उल्लेख किया है। कथा है कि स्वाध्याय में उद्यत शास्त्र-समुद्र के पारंगत
और अप्रतिबद्ध अनगार सिंहचन्द्र ने एक बार एक राज्य से दूसरे राज्य में चंक्रमण की इच्छा से शकटवाही व्यापारी के साथ अटवी में प्रवेश किया। वहाँ व्यापारी ने पटमण्डप (तम्बूखड़ा कर पड़ाव डाला। गाड़ियों से बैलों को खोलकर उनके आगे घास-पुआल डाल दिये। व्यापारी की आवाज सुनकर एक हाथी उस प्रदेश में आ पहुँचा। वह गाड़ियों को उलटाता और पटमण्डप को फाड़ता हुआ विचरण करने लगा (तत्रैव : पृ. २५६)। इस कथा से यह स्पष्ट है कि व्यापारी तम्बू खड़ा करके पड़ाव डालते थे। इसी प्रकार, चारुदत्त जब अपना देश लौटा था, तब चम्पापुर के बाहर विद्याधर देव से प्राप्त खच्चर, गधे, ऊँट आदि सवारी के साधन बाँध दिये गये थे और विविध वस्तुओं और उपस्करों से लदी गाड़ियाँ ठहरा दी गई थीं (गन्धर्वदत्तालम्भ : पृ. १५४) । १. विशेष विवरण के लिए द्रष्टव्य : 'सार्थवाह' (वही) : पृ. १३९-१४०