________________
वसुदेवहिण्डी में प्रतिबिम्बित लोकजीवन
४५१
अपनी देह सिकोड़े हुए बकरे वहाँ रुक गये। सभी सार्थवाहों ने अपनी-अपनी आँखों से पट्टी उतार दी। पहाड़ के ऊपर समतल भूमिभाग पर सभी सार्थवाहों ने भोजन और विश्राम किया ।
पुन: मार्गनिर्देशक ने सार्थवाहों को निर्देश दिया: बकरे को मारकर सभी कोई उसके मांस पकाकर खा लें और अपनी-अपनी कमर में छुरी बाँधकर लहू से सने उनके चमड़े के खोल में घुस जायँ । रत्नद्वीप से विशाल शरीरवाले भारुण्ड पक्षी यहाँ विचरने के लिए आते हैं। वे यहाँ बाघ, रीछ और भालू के द्वारा मारे गये जीवों का मांस खाते हैं और बड़े-बड़े मांसपिण्ड अपने घोंसले में ले जाते हैं । लहू से सने चमड़े के खोल में घुसे हुए हमें बृहत् मांसपिण्ड समझकर वे रत्नद्वीप में उठा ले जायेंगे। ज्यों ही वे हमें जमीन पर रखेंगे, त्यों ही छुरी से चमड़े के खोल को चीरकर हम बाहर निकल आयेंगे। वहाँ हम रत्नद्वीप में रत्नसंग्रह करेंगे । पुनः हम वैताढ्य पर्वत के निकटवर्ती सुवर्णभूमि में जा पहुँचेंगे और वहाँ से नौका द्वारा पूर्वदेश में लौट आयेंगे (गन्धर्वदत्तालम्भ: पृ. १४८-४९) ।
बुधस्वामी ने 'बृहत्कथाश्लोकसंग्रह' में उपर्युक्त 'अजपथ' का वर्णन (१८.४४९-६१ ) और भी अधिक भयानकता के साथ किया है। एक बकरे के जाने लायक सुरंगनुमा मार्ग होने के कारण ही उस मार्ग का नाम 'अजपथ' पड़ा था । बुधस्वामी ने लिखा है कि अजपथ का नाम सुनते ही भय हो आता है । भृगुपतन ( पहाड़ के कगार से गिरकर आत्महत्या) करनेवालों के लिए ढलवाँ चट्टान की तरह उस अजपथ की चट्टान तो देखने में और अधिक भयानक प्रतीत होती है। इसी संकीर्ण अजपथ में सानुदास को सामने से आनेवाले शत्रु को मारकर अपना पथ प्रशस्त करना पड़ा था। इसी क्रम में बुधस्वामी के वेणुपथ (१८.४३९-४६) और खगपथ (भारुण्ड पक्ष द्वारा उड़ा ले जाने का मार्ग) का वर्णन (१८.४९९-५०५) भी विशेष महत्त्वपूर्ण है ।
चारुदत्त ने अपनी यात्रा में जो मार्ग अपनाया था, वही मार्ग गुणाढ्य की 'बृहत्कथा' में रहा होगा, ऐसा अनुमान है । क्योंकि, चारुदत्त की इसी साहसिक यात्राकथा का प्रतिरूप 'बृहत्कथाश्लोकसंग्रह' में उपलब्ध है । यद्यपि, 'बृहत्कथाश्लोकसंग्रह' के सानुदास की साहसिक यात्रा सुवर्णद्वीप तक ही सीमित है । किन्तु, चारुदत्त की यात्रा प्रियंगुपट्टण, जो कदाचित् पूर्वदेश, यानी बंगाल में होगा, से प्रारम्भ हुई। इस सन्दर्भ में, डॉ. मोतीचन्द्र ने प्राचीन भारत की पथ-पद्धति के निर्देश के क्रम में, संघदासगणी द्वारा वर्णित चारुदत्त के यात्रामार्ग के विवरण का विश्लेषण करते हुए लिखा है कि चारुदत्त प्रियंगुपट्टण से चीनस्थान, अर्थात् चीन गया और वहाँ से वह मलय- एशिया पहुँचा। रास्ते में वह कमलपुर भी गया था, जिसकी पहचान कम्बुज से की जा सकती है और जो मेरु अथवा अरबों के कमर ( ख्मेर) का रूपान्तर मात्र है । वहाँ से वह जावा पहुँचा और फिर वहाँ से सिंहल (श्रीलंका) । संघदासगणी द्वारा उल्लिखित पश्चिम बर्बर से यहाँ सिन्ध के प्रसिद्ध बन्दरगाह 'बार्बरिकोन' का स्मरण आता है। यहाँ के बाद यवन, यानी सिकन्दरिया का बन्दरगाह आता है । चारुदत्त ने अपनी मध्य एशिया की यात्रा सिन्धु-सागर-संगम, यानी प्राचीन बर्बर के बन्दरगाह से प्रारम्भ की। वहाँ से कदाचित् सिन्धु नदी के साथ चलते हुए वह हूणों के प्रदेश में पहुँचा । वैताढ्य
1
१. अयं चाजपथो नाम श्रूयमाणो विभीषणः ।
दृश्यमानो विशेषेण भृगुः पातार्थिनामिव ॥ (१८.४६१)
२. 'द्र. सार्थवाह', प्र. बिहार- राष्ट्र भाषा-परिषद्, पटना, प्र. सं, सन् १९५३ ई. : पृ.१३२-१३३