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________________ वसुदेवहिण्डी में प्रतिबिम्बित लोकजीवन दिखाई दे रहा था कि तभी सहसा औत्पातिक आँधी से आहत होकर चारुदत्त की नाव नष्ट हो गई। बहुत देर के बाद एक तख्ता उसके हाथ लग गया। उसी को पकड़कर लहर के सहारे बहता हुआ चारुदत्त सात रात के बाद उदुम्बरावती के तट पर आ लगा। वह समुद्र से बाहर आया। उसका सारा शरीर खारे पानी से सफेद पड़ गया था (गन्धर्वदत्तालम्भ : पृ. १४५-१४६)। इस कथा-प्रसंग से समुद्रयात्रा के अनेक पक्ष उभरकर सामने आते हैं। सार्थवाह समुद्र की यात्रा पूरी तैयारी के साथ प्रारम्भ करते थे। यात्रा करने के पूर्व उन्हें राज्य-शासन से पट्ट प्राप्त करना पड़ता था। यह पट्ट आधुनिक पारपत्र का प्रतिरूप होता था। नाव खोलने के पूर्व अनुकूल मौसम और सगुन की प्रतीक्षा भी नाविकों के लिए आवश्यक होती थी। उस युग के सार्थवाह बृहत्तर भारत में जलमार्ग द्वारा व्यापार करते थे। इस क्रम में वे चीन, श्रीलंका, जावा, सुमात्रा, बर्बर, यवनदेश, सौराष्ट्र आदि दूर-दूर के देशों में जाया करते थे। कभी-कभी औत्पातिक आँधी में उनकी नावें डूब जाया करती थी और उन सार्थवाहों का सर्वनाश हो जाता था। फिर भी, सार्थवाह हिम्मत नहीं हारते थे। समुद्री तूफान से बच निकलने पर वे पुन: साहस और उत्साह के साथ अपना व्यापार खड़ा कर लेते थे। चारुदत्त भी जब समुद्री तूफान से बच निकला, तब वह लोहे को सोना बनानेवाले एक त्रिदण्डी परिव्राजक के चक्कर में फँस गया। त्रिदण्डी ने सोना बनानेवाले रस की उपलब्धि के लिए उसे चर्मकूर्पासक पहनाकर, रात्रि में योगवर्तिका जलाकर, उसी के प्रकाश में कुएँ में उतारा। कुएँ के तल पर पहुँचते ही उसे रसकुण्ड दिखाई पड़ा। परिव्राजक ने मचिया-सहित तूंबा कुएँ में लटकाया। चारुदत्त ने करछुल से तूंबे में रस भरकर उसे मचिये पर रखा। परिव्राजक ने रस्सी खींचकर तँबा तो ऊपर उठा लिया, पर चारुदत्त को कुएँ में ही छोड़कर वह चला गया। चारुदत्त निर्भीक, साहसी और महाप्राण व्यक्ति था। सुबह होने पर एक बहुत बड़ी गोह सुरंग के रास्ते कुएँ में पानी पीने आई। जब वह लौटने लगी, तब चारुदत्त ने उसकी पूँछ पकड़ ली। सुरंग के भीतर से वह गोह तीर की गति से उसे खींचती हुई दूर जाकर एक जंगल में निकल गई। चर्मकूसिक पहने रहने के कारण उसका शरीर छिला नहीं। जंगल में भयानक भैंसे और अजगर के आक्रमण से बचता हुआ वह काँटों की झाड़ियों में भटकता रहा। तभी अचानक उसका पड़ोसी रुद्रदत्त उसे दिखाई पड़ा। दोनों परस्पर मिलकर बड़े प्रसन्न हुए (तत्रैव : पृ. १४७-१४८)। ___ कथाकार ने संकेतित किया है कि उस समय के सार्थवाह इस सिद्धान्त में विश्वास करते थे कि व्यापार में भाग्य, पूँजी और उद्योग तीनों की समन्वित प्रतिष्ठा से ही धनागम होता है। तभी तो रुद्रदत्त ने चारुदत्त को आश्वस्त करते हुए कहा था: ‘मा विसायं वच्चह, तुब्भं भागधिज्जेहिं अप्पेण पक्खेवेण सरीरचिट्ठागुणेण बहुं :दव्वं उवज्जेयव्वं'; (तत्रैव : पृ. १४८)। चारुदत्त का भाग्य और रुद्रदत्त की पूँजी (प्रक्षेप) तथा दोनों के शारीरिक उद्योग जब आपस में मिल गये, तब व्यापार ने पुन: एक नया मोड़ लिया। यहाँ कथाकार ने स्थलपथ में यात्रा करनेवाले सार्थवाहों के प्राणघाती कष्टों का मार्मिक वर्णन उपन्यस्त किया है। चारुदत्त अपने मित्र रुद्रदत्त की सहायता से राजपुर पहुंचा। वहाँ रुद्रदत्त ने व्यापार के लिए माला, आभूषण, अलक्तक (लाख), लाल कपड़े और कंकण प्रभृति वस्तुओं को खरीदा। फिर, वह चारुदत्त के साथ व्यापार के निमित्त यात्रा कर रहे सार्थवाहों में सम्मिलित हो गया। क्रम से वे सिन्धु-सागर-संगम नदी को पारकर डरते हुए
SR No.022622
Book TitleVasudevhindi Bharatiya Jivan Aur Sanskruti Ki Bruhat Katha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShreeranjan Suridevi
PublisherPrakrit Jainshastra aur Ahimsa Shodh Samsthan
Publication Year1993
Total Pages654
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size18 MB
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