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वसुदेवहिण्डी : भारतीय जीवन और संस्कृति की बृहत्कथा संघदासगणी ने चारुदत्त की आत्मकथा में लिखा है कि विदेश जाकर व्यापार करना बहुत ही कष्टकर कार्य है (गन्धर्वदत्तालम्भ : पृ. १४४)। उस समय के व्यापारों में सूत और रुई के व्यापार को प्रमुखता प्राप्त थी। चम्पापुरी के सेठ भानुदत्त का पुत्र चारुदत्त उशीरावर्त के सीमावर्ती 'दिशासंवाह' नामक गाँव में अपनी सोने की अंगूठी से रुई और सूत का विनिमय करके, अपने मामा (सिद्धार्थ) के साथ मिलकर व्यापार करता था। एक दिन मध्यरात्रि में चूहे दीये की जलती हुई बत्ती खींच ले गये, जिससे रुई में आग लग गई। व्यापार करते-करते उसने पुन: सूत और रुई एकत्र कर ली। उसने उन्हें गाड़ियों में लादा और व्यापारियों के साथ वह उत्कलदेश चला गया। वहाँ भी उसने रुई खरीदी और उसे भी गाड़ियों में लादा। वहाँ से ताम्रलिप्ति की ओर प्रस्थान किया। यात्रा के क्रम में उसने मामा के साथ दर्गम जंगल में प्रवेश किया। व्यापारियों ने गहन जंगली प्रदेश में पड़ाव डाला। साथ में मालवाहक लोगों का संख्याबल था, इसलिए सभी निश्चिन्त थे। सन्ध्या के समय चोर आ धमके। उन्होंने सिंगा फूंका और नगाड़े बजाये। कुछ देर तक वे चोर मालवाहकों से जूझते रहे, फिर व्यापारियों के साथ ही उनकी भी हत्या करना शुरू किया। अन्त में, उन्होंने गाड़ियों में आग लगा दी और सारे माल लूट ले गये। चोरों के उपद्रव की उस हड़बड़ी के समय चारुदत्त जंगल में भाग निकला।
चारुदत्त की आत्मकथा से यह भी स्पष्ट है कि उस समय सार्थवाहों को बाँस के सघन जंगल के अन्धकार से आच्छन्न और बाघ की गुर्राहट से व्याप्त प्रदेशों को पार करना पड़ता था। साथ ही, जंगली आग से भी उन्हें बराबर भय बना रहता था। ऐसी ही कठिन परिस्थिति में मामा से बिछुड़ा हुआ चारुदत्त 'अजरामरवतप्राज्ञो विद्यामर्थं च चिन्तयेत्', इस नीतिवाक्य के अनुसार धनार्जन के कार्य में अपनी अमरता की आस्था के साथ हिम्मत बनाये रहा। उसने मन में सोचा : जो काम मैने प्रारम्भ किया है, उसे छोड़कर मेरा घर वापस जाना उचित नहीं है। उत्साह में ही लक्ष्मी निवास करती है। दरिद्र व्यक्ति तो मृतक के समान है। स्वजन से अपमानित होकर जीनेवाले को धिक्कार है। इसलिए, परदेश में रहना ही श्रेयस्कर है। ___ चारुदत्त एक जनपद से दूसरे जनपद में घूमता हुआ क्रम से प्रियंगुपट्टण पहुंचा। वहाँ उसकी भेंट अपने पड़ोसी नौकायात्री (नावासंजत्तओ) सुरेन्द्रदत्त से हो गई। चारुदत्त ने उससे एक लाख रुपये उधार लिये। फिर, उसने भी नौका बनवाई। उसपर माल लादे गये और कुछ नौकर साथ रख लिये गये। उसके बाद उसने राज्यशासन से अनुमति (पारपत्र) प्राप्त की ('गहिओ य रायसासणेण पट्टओ)। हवा और सगुन की अनुकूलता देखकर वह नाव पर सवार हुआ। ध्रुव (लंगर) उठा दिया गया ('उक्खित्तो धुवो)। नाव चीनस्थान के लिए चल पड़ी। जलमार्ग में सारा लोक जलमय प्रतीत होता था। वे सभी नौकायात्री चीनस्थान पहुँच गये। वहाँ व्यापार करने के बाद सुवर्णद्वीप (सुमात्रा) गये। फिर, पूर्व-दक्षिण के शहरों का हिण्डन करके कमलपुर (ख्मेर), यवनद्वीप (जावा) और सिंहल (श्रीलंका) में उन्होंने सम्पत्ति अर्जित की और पश्चिम में बर्बर और यवनदेश जाकर आठ करोड़ कमाया। वस्तुओं में उन मुद्राओं को लगाकर उन्होंने जलमार्ग द्वारा व्यापार करके दूना लाभ उठाया। उसके बाद नाव सौराष्ट्र-तट से होकर चली। सौराष्ट्र का तट
१. ध्रुव को यदि ध्रुवदर्शक ('बृहत् ज्ञानकोश' के अनुसार, एक दिशा-सूचक यन्त्र या कुतुबनुमा, जिसकी सुई
बराबर उत्तर दिशा की ओर रहती है) माना जाय, तो यह अनुमान सहज ही होता है कि तत्कालीन नावों में कुतुबनुमा लगा रहता होगा, जिससे नौकायात्री अथाह समुद्र में दिशा का ज्ञान करते होंगे। -ले.