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________________ वसुदेवहिण्डी : भारतीय जीवन और संस्कृति की बृहत्कथा अर्थ-व्यवस्था : प्राचीन प्रसिद्ध भारतीय अर्थशास्त्री कौटिल्य के अनुसार, अर्थ मनुष्यों की जीविका का पर्याय है। मनुष्यों से युक्त भूमि की संज्ञा भी अर्थ ही है। उस भूमि को प्राप्त करने और उसकी रक्षा करनेवाले उपायों का निरूपक शास्त्र अर्थशास्त्र है। यही अर्थशास्त्र धर्म, अर्थ तथा काम में प्रवृत्त करता है, उनकी रक्षा करता है और अर्थ के विरोधी अधर्मों का विनाश करता है। कौटिल्य ने 'अर्थशास्त्र' के प्रथम अध्याय के विद्यासमुद्देश-प्रकरण में कहा है कि लोकयात्रा की सम्पूर्णता के लिए लोकपोषण और संवर्द्धन ही अर्थशास्त्र का मुख्य लक्ष्य है। लोकपोषण और संवर्द्धन के लिए निर्धारित धर्मों में कृषि और वाणिज्य का महत्त्वपूर्ण स्थान माना गया है। प्राचीन युग में अध्ययन, यजन, दान, कृषि, पशुपालन और वाणिज्य वैश्यों के स्वधर्म में परिगणित थे। ('वैश्यस्याध्ययनं यजनं दानं शस्त्राजीवो भूतरक्षणं च।' -अर्थशास्त्र, १.१.२) ____ 'वसुदेवहिण्डी' में वैश्य-वर्ग के सदस्य अर्थ-व्यवस्था के प्रधान सूत्रधर के रूप में प्रतिष्ठित हैं। संघदासगणी ने भी कौटिल्य की भाँति लोकयात्रा के लिए त्रिवर्ग (धर्म, अर्थ और काम) की साधना का समर्थन किया है, किन्तु जीवन का अन्तिम लक्ष्य मोक्ष या निर्वाण को ही माना है। धर्म, दर्शन, काव्य, कला, अर्थ आदि मानव-संस्कृति के जितने भी अंग हैं, उनमें पुरुषार्थचतुष्टय (धर्म, अर्थ, काम एवं मोक्ष) की उपयोगिता पर अनेक प्रकार से विचार किया गया है। 'अर्थशास्त्र', चूँकि ऐहिक जीवन के क्रिया व्यापारों से सम्बद्ध है, इसलिए उसमें मोक्ष को छोड़कर त्रिवर्ग की सिद्धि पर बल दिया गया है। संघदासगणी के कृषि-वाणिज्य-विषयक कथा-प्रसंगों से यह आभासित होता है कि धर्म, अर्थ और काम में प्रमुखता अर्थ की है और शेष दोनों, धर्म तथा काम अर्थ पर ही निर्भर हैं। कहना न होगा कि संघदासगणी ने मानव-जीवन की सांगता के लिए धनैषणा को अनिवार्य मानते हुए भी उसे मानव का साध्य नहीं बनाया है, अपितु उनकी दृष्टि में अर्थ साधन है और मानव साध्य । उन्होंने मूलत: मानवत्व की सिद्धि में ही अर्थ की उपयोगिता का उद्घोष किया है। उनके द्वारा निर्दिष्ट आर्थिक संस्कृति मानव की चारित्रिकता, नीतिमत्ता, सर्वभूतहितैषिता आदि के उन्नयन और उत्कर्ष से जुड़ी हुई है। मानव-जीवन की संसिद्धि के लिए अर्थ की आवश्यकता और महत्त्व को धर्मग्रन्थों में भी आदरणीय स्थान दिया गया है। 'गीता' (१०.४१) में श्रीकृष्ण ने कहा है कि जो कुछ विभूतिमान् और श्रीमान् है, वह सब मेरे तेज के ही अंश से उत्पन्न हुआ है। 'गीता' (६.४१) में यह भी उल्लेख है कि योगभ्रष्ट पुरुष पवित्र श्रीमान् के घर जन्म लेता है। उपनिषदों में वित्तैषणा के परित्याग का उपदेश होने पर भी याज्ञवल्क्य और सयुग्वा रैक्व धन के प्रति आग्रहशील हैं। 'वसुदेवहिण्डी' में भी याज्ञवल्क्य को एक परिग्रही परिव्राजक के रूप में चित्रित किया गया है। भारतीय संस्कृति में धन के महत्त्व की ज्ञापिका श्री या लक्ष्मी देवी की उपासना की चिराचरित प्रथा को अधिक-से-अधिक मूल्य प्राप्त है। उपनिषदों में अनेक ऐसे ऋषियों की चर्चा है, जिन्होंने प्रचुर धन मिलने पर ही शिक्षा देना स्वीकार किया है। इन सभी प्रसंगों से स्पष्ट है कि अर्थार्जन १. मनुष्याणां वृत्तिरर्थः, मनुष्यवती भूमिरित्यर्थः, तस्याः पृथिव्या लाभपालनोपायः शास्त्रमर्थशास्त्रमिति। (१५.१८०.१) २. धर्ममर्थं च कामं च प्रवर्त्तयति पाति च। अधर्मानर्थविद्वेषानिदं शास्त्र निहन्ति च ॥ उपरिवत्
SR No.022622
Book TitleVasudevhindi Bharatiya Jivan Aur Sanskruti Ki Bruhat Katha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShreeranjan Suridevi
PublisherPrakrit Jainshastra aur Ahimsa Shodh Samsthan
Publication Year1993
Total Pages654
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size18 MB
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