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वसुदेवहिण्डी में प्रतिबिम्बित लोकजीवन
४३५ तेईसवें भद्रमित्रा-सत्यरक्षितालम्भ (पृ. ३५३-३५४) में, धन के उत्तराधिकार के सम्बन्ध में एक रोचक वाद-निर्णय का उल्लेख कथाकार ने किया है। कथा है कि पोतनपुर के एक सार्थवाह के दो पलियाँ थीं और एक पुत्र था। सार्थवाह किसी कारणवश मर गया। उसकी दोनों पलियों में धन के निमित्त झगड़ा हो गया। दोनों ही अपने को उस पुत्र की अपनी माँ घोषित कर रही थीं। दोनों झगड़ती हुई राजदरबार में पहुँची। राजा ने अपने मन्त्री सुचित्त से दोनों स्त्रियों के आपसी कलह की वस्तुस्थिति का पता लगाने के लिए आदेश दिया। मन्त्री ने कतिपय व्यापारियों के समक्ष दोनों स्त्रियों से पूछा कि आप दोनों का कोई ऐसा व्यक्ति है, जो पुत्र के जन्म के विषय में जानता हो। दोनों में कोई भी पुत्रजन्म का साक्षी नहीं उपस्थित कर सकी, जो यह बता सके कि अमुक स्त्री ने पुत्र को जन्म दिया है। लड़के ने भी अपनी वास्तविक माँ के बारे में अनभिज्ञता व्यक्त की। उसने कहा कि स्नेह के कारण मैं दोनों को माँ कहता हूँ। इस उत्तर से मन्त्री किंकर्तव्यविमूढ़ हो गया और 'अच्छा तो विचार करूँगा', कहकर उन्हें विदा कर दिया। ___कुछ दिनों के बाद वे दोनों पुन: राजदरबार में उपस्थित हुईं । राजा को जब इसकी सूचना मिली, तब वह रुष्ट हो उठा और मन्त्री से बोला : “तुमने सामन्तों के बीच मुझे हलका कर दिया है। ऐसा भी मन्त्री क्या, जो बहुत दिनों के बाद भी विवाद को निबटाने में असमर्थ है। तो, विना इस विवाद को निबटाये तुम मुझे अपना मुँह मत दिखाना।' मन्त्री ने सोचा : राजा अप्रसन्न होने पर यम और प्रसन्न होने पर कुबेर के समान होता है ('जम-कुबेर-सरिसा रायाणो कोपे पसादे य; तत्रैव)। इसके बाद वह (मन्त्री) भय से गोदावरी नदी के तटवर्ती आश्रम में चला गया और वहीं गुप्त रूप से रहने लगा। __ घूमते हुए वसुदेव संयोग से उस आश्रम में पहुँचे। वहाँ रात में उनकी भेंट मन्त्री सुचित्त से हो गई। मन्त्री ने अपनी समस्या उनके सामने रखी और वसुदेव ने उसके समाधान का बीड़ा उठा लिया। वे मन्त्री के साथ पोतनपुर आये। सुबह होने पर वसुदेव बाह्योपस्थान (दीवानखाना, जहाँ राजा मन्त्रियों के साथ बैठकर मुकदमों का फैसला करता था) में पधारे । वहाँ कतिपय व्यापारी उपस्थित हुए और सार्थवाह की दोनों पलियाँ भी अपने पुत्र के साथ हाजिर हुईं। उन्होंने वसुदेव को प्रणाम किया। उसके बाद वसुदेव ने मुकदमे के फैसले के लिए उन दोनों स्त्रियों से पूछताछ की। उसके बाद उन्होंने आरा चलानेवालों को बुलवाया और उनसे गुप्त रूप से कहा : 'ऐसा करना कि बच्चे को तकलीफ न हो, लेकिन तीव्र भय का प्रदर्शन करना।' उन्होंने वैसा ही करना स्वीकार कर लिया।
उसके बाद वसुदेव महार्घ आसन पर बैठे और सार्थवाह की दोनों पलियों से कहा : 'विवाद करना व्यर्थ है। तुम दोनों स्त्रियाँ धन को आपस में बराबर-बराबर बाँट लो।' उनमें एक ने स्वीकार कर लिया कि ऐसा ही हो। लेकिन, दूसरी मूढ़ स्त्री ने कुछ भी उत्तर नहीं दिया। तब वसुदेव के निर्देशानुसार आराकशों ने लड़के को यन्त्र में जकड़ दिया और उसके माथे पर धागे से निशान बनाकर आरे को रखा। तब वसुदेव ने उनसे कहा : धागे के चिह्न का अतिक्रमण किये बिना लड़के को चीरो। तब वह बालक मृत्युभय से घबड़ाकर रोने लगा। लड़के को उस स्थिति में देखकर धनलाभ की इच्छावाली एक स्त्री को परपुत्र के वध का कोई दुःख नहीं हुआ, वरन् उसका मुख सूर्य की किरणों से खिले कमल की भाँति विकसित हो उठा। किन्तु दूसरी स्त्री का हृदय