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वसुदेवहिण्डी में प्रतिबिम्बित लोकजीवन
४३३ अन्त:पुर में कबूतर पाले जाने की प्रथा का संकेत 'वसुदेवहिण्डी' से मिलता है। कथा है कि पुत्रप्राप्ति का आकांक्षी राजा पुण्ड्र एक दिन अपने अन्तःपुर में गया। उसने देखा कि रानी, अपने बच्चों को दाना चुगाते हुए पारावत-मिथुन को एकटक देख रही है। राजा ने रानी से पूछा : ‘क्या देख रही हो?' रानी बोली : 'स्वामी ! कृष्णागुरुधूप की तरह श्यामवर्ण, लाल-लाल पैर और आँखोंवाले कबूतरों को तो देखिए, जो अपनी भूख की परवाह न करते हुए, पुत्रस्नेहवश अपनी चोंच से दाना चुगकर बच्चों के मुँह में डाल रहे हैं' (रक्तवतीलम्भ : पृ. २१६) । इससे स्पष्ट है कि उक्त प्रकार के सहज सन्दर कबतर राजभवन की शोभा बढ़ानेवाले होते ते । इसीलिए कथाकार ने राजमहल के कंगूरे या गुम्बद पर बैठे हुए कबूतरों के झुण्ड का बिम्बात्मक वर्णन किया है (बन्धुमतीलम्भ : पृ. २६८)। ___ रानियों के अन्त:पुर में संन्यासियों के निर्बाध प्रवेश के कारण भी कभी-कभी अनर्थकारी घटनाएँ हो जाती थीं। कथाकार ने लिखा है कि वसन्तपुर का राजा जितशत्रु परिव्राजकों का बड़ा भक्त था। इसलिए, उसने अपने अन्त:पुर में उनके आने-जाने की खुली छूट दे रखी थी। एक दिन शूरसेन नाम के परिव्राजक ने जितशत्रु की रानी इन्द्रसेना को ही, जो राजा जरासन्ध की बेटी थी, अपने विद्याबल से वश में कर लिया। राजा को इसकी सूचना मिलने पर उसने परिव्राजक का वध करवा दिया (केतुमतीलम्भ : पृ. ३४८)।
इस प्रकार, संघदासगणी ने तत्कालीन राजकुल और उसके राज्य प्रशासन का जो वर्णन किया है, वह अपने-आप में विविध और विचित्र है। इस युग में राजकुल से सम्बद्ध लोग जहाँ राजपूजा से गर्वान्वित होते थे या राजा की ओर से प्राप्त होनेवाले सम्मान से कृतार्थ होते थे, वहीं उनपर निरन्तर वध और बन्धन के कालदूत मँडराते रहते थे। अनुग्रह और निग्रह का कार्य समानान्तर रूप से चलता था। सदत्ति से सम्पन्न लोगों की जहाँ ततोऽधिक पूजा की जाती थी, वहीं असंहृत्तिवाले लोगों को कठोर-से-कठोर दण्ड देने में भी राजा हिचकते नहीं थे। प्राय: सभी राजा कलाकुशल और नीतिशास्त्रज्ञ होते थे। दूतों और गुप्तचरों का उस युग के राज्य प्रशासन में बहुत अधिक महत्त्व था। नीतिकारों ने कहा भी है कि गुप्तचर ही राजा के नेत्र होते हैं। राजा गुप्तचर की आँखों से ही देखता है। अपनी आँखों से तो सामान्य मनुष्य देखते हैं: 'चारैः पश्यन्ति राजानचक्षुामितरे जनाः।'
राजधानी के असामाजिक तत्त्वों या राज्यविप्लवकारी घटनाओं के प्रति गुप्तचरों की दृष्टि बहुत सतर्क रहती थी और दो राजाओं के परस्पर युद्ध के समय दूतों का उत्तरदायित्व अधिक बढ़ जाता था। इस सन्दर्भ में कथाकार द्वारा वर्णित चण्डसिंह ( बन्धुमतीलम्भ : पृ. २७६; केतुमतीलम्भ : पृ. ३११), डिम्भक शर्मा (केतुमतीलम्भ : पृ. ३४९; प्रभावतीलम्भ : ३५०), मरीचि (केतुमतीलम्भ : पृ. ३११; ३१९), मिश्रकपाद (प्रभावतीलम्भ : पृ. ३५०) आदि दूतों के नाम और कार्य विशेष रूप से उल्लेखनीय हैं।
विधि-व्यवस्था: अपराध और दण्डः
संघदासगणी ने तत्कालीन राजकुलों की राज्य-प्रशासन-नीति के क्रम में ही विधि-व्यवस्था का विशद वर्णन उपन्यस्त किया है और इस विधि-व्यवस्था के सन्दर्भ में ही उस युग में होनेवाले