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वसुदेवहिण्डी में प्रतिबिम्बित लोकजीवन
४२९ सहायता से वसुदेव को स्नान कराकर राजा अशनिवेग के अभ्यन्तरोपस्थान में ले गई थी (श्यामलीलम्भ : पृ. १२३)।
राजकुल में स्त्री-प्रतिहारी के अतिरिक्त पुरुष-प्रतिहारी भी होते थे। कथाकार ने चक्रवर्ती राजा सनत्कुमार के राजकुल में पुरुष-प्रतिहारी के नियुक्त रहने का उल्लेख किया है (मदनवेगालम्भ : पृ. २२३)। स्त्री-प्रतिहारी के रूप और अलंकरण का अपना वैशिष्ट्य होता था। प्रतिहारी मत्तकोकिला का वर्णन कथाकार ने वसुदेव के मुख से इस प्रकार कराया है : 'वह मध्यम वय की थी और सफेद बारीक रेशम के दुकूल तथा उत्तरीय धारण किये हुए थी।' (श्याम लीलम्भ : पृ. १२३) इसी प्रकार, वसुदेव जब सार्थवाह कुबेरदत्त के भवन के द्वार पर रथ से उतरे, तब उन्होंने वहाँ स्त्री-प्रतिहारी को देखा, जो कीमती कपड़ों और गहनों से सजी साक्षात् गृहदेवी जैसी प्रतीत हो रही थी। वह पादुका धारण किये हुए थी और उसके हाथ में स्वर्णजटित दण्ड था, जिससे वह कुतूहली लोगों की भीड़ पर नियन्त्रण कर रही थी (सोमश्रीलम्भ : पृ. २२२) ।
___ परम्परागत रूप से प्रतिहारी के अतिरिक्त कंचुकी की भी नियुक्ति राजकुल में की जाती थी। कंचुकी पुरुष होते हुए भी रानी के पार्श्वचरों में सम्मिलित था। वह जनानी ड्योढ़ी का द्वारपाल
और अन्त:पुर का सेवक भी होता था। इसीलिए, उसे नाट्याचार्यों ने 'सर्वकार्यार्थकुशल:' की संज्ञा दी है। 'वसुदेवहिण्डी' में एक स्थल पर अन्त:पुर के सेवक के रूप में ही कंचुकी का उल्लेख हुआ है। अभग्नसेन का भाई मेघसेन और अन्त:पुर में स्थित वसुदेव के परस्पर मिलन के पूर्व कंचुकी भेजकर वसुदेव से अनुमति ली गई थी (अश्वसेनालम्भ : पृ. २०७) ।
राजकुल में, उबटन (वर्णक) लगानेवाली तथा मालिश और स्नान करानेवाली दासियाँ तो नियुक्त रहती ही थीं, प्रत्येक राजा की परिचर्या में व्यक्तिगत धात्री का भी नियोजन होता था (श्यामाविजयालम्भ : पृ. ११९) । वसुदेव जब कुबेरदत्त सार्थवाह के भवन के भीतर गये, तब सार्थवाह के परिजनों ने उनका अभिनन्दन किया। वहाँ आसन पर सुखपूर्वक बैठने के बाद कुशल संवाहिकाओं ने वसुदेव के शरीर पर 'शतपाक तैल' चुपड़कर उनकी मालिश की और मंगल कलश से उन्हें स्नान कराया (सोमश्रीलम्भ : पृ. २२२) ।
संघदासगणी ने राजकुल-वर्णन के प्रसंग में, अन्तःपुर का भी मनोरम अंकन किया है। अन्त:पुर में भी राजकन्याओं का अन्त:पुर अलग होता था और रानियों का अलग। कन्या के अन्त:पुर में नियुक्त महाद्वारपाल गंगरक्षित की कन्याओं द्वारा की जानेवाली दुर्दशा का रोचक वर्णन कथाकार ने किया है। कथा है कि राजा एणिकपुत्र द्वारा जब गंगरक्षित को उसके पिता गंगपालित की जगह महाद्वारपाल नियुक्त कर दिया गया, तब एक दिन दोपहर के बाद एक दासी उत्पलमाला पथरी में भात और दाहिने हाथ में एक मलिया लिये हुए आई और कुत्ते को आवाज देने के तरीके से उसे बुलाने लगी। गंगरक्षित दासी के पास गया और क्रोधाविष्ट होकर उससे बोला : यह मलिया मैं तुम्हारे माथे पर फोडूंगा। उसके बाद उसने दासी को अनेक प्रकार से खेदित और लज्जित किया। इस घटना को राजा ने छोटी खिड़की की जाली से छिपकर देख लिया। उसके बाद दासी ने एक गाथा के द्वारा गंगरक्षित को उपदेश किया: 'अरे पण्डित ! इस भात को लेकर तुम कुत्ते को दो अथवा फेंक दो। लेकिन, इतना खयाल रखो कि राजकुल में एक बार जो आ जाता है, उसका फिर छुटकारा नहीं है।' तभी गंगरक्षित सोचने लगा कि उसके पिता ने द्वारपाल का बड़ा दुष्कर कार्य किया था। इस प्रकार उसका समय बीतने लगा।