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________________ वसुदेवहिण्डी : भारतीय जीवन और संस्कृति की बृहत्कथा 'वसुदेवहिण्डी' में राक्षस और पिशाच के और भी कई रोचक कथाप्रसंगों का उल्लेख हुआ है । चारुदत्त की कथा में नदी-तट की बालू पर उगे पदचिह्नों को देखकर उत्पन्न हुई हरिसिंह की जिज्ञासा के उत्तर में गोमुख देव, राक्षस, पिशाच आदि का अलग-अलग अभिज्ञान बताते हुए, कहता है कि देवता तो धरती से चार अंगुल ऊपर चलते हैं और राक्षस तो महाशरीर होते हैं । पिशाच तो जलबहुल प्रदेश से डरते हैं, इसलिए वे यहाँ नहीं आ सकते । अन्त में, यही निश्चय हुआ कि ये पदचिह्न विद्याधर के हैं (गन्धर्वदत्तालम्भ : पृ. १३५ ) । इसके अतिरिक्त, कथाकार ने तालपिशाच का भी वर्णन किया है। विद्याधर भी पिशाचों के रूप में अपने को बदलने की विद्या जानते थे । कथा है कि अश्वग्रीव ने जब अपने विद्याधर सैनिकों को बुलाया, तब वे झुण्ड-के-झुण्ड वहाँ आ घिरे । माया और इन्द्रजाल के प्रयोग में निपुण ('माया - इंदजालाणि य पउंजिऊणं) उन विद्याधर- सैनिकों ने रथावर्त पर्वत पर पड़ाव डाला और तालपिशाच, श्वान, शृगाल, सिंह आदि के भयंकर रूपों की रचना करके पानी, आग और अस्त्र फेंकते हुए त्रिपृष्ठ की सेना को पराजित करने लगे (केतुमतीलम्भ: पृ. ३१२)। ४१२ विष्णुकुमार के विराट् शरीर को देखकर प्रायः सभी व्यन्तर और ज्योतिष्क देव एक साथ त्रस्त - पीडित हो उठे थे । कथा है कि विष्णुकुमार के अदृष्टपूर्व महाशरीर को देखकर व्यन्तरदेवसमुदाय के किन्नर, किम्पुरुष, भूत, यक्ष, राक्षस, महोरग तथा ज्योतिष्क देव भय से भाग चले, उनकी आँखें व्याकुलता से चंचल थीं, आभूषण खिसक रहे थे, वे अप्सराओं की सहायता लिये हुए थे और किंकर्तव्यविमूढ होकर कातर भाव से आर्त्तनाद करते हुए हड़बड़ी में एक दूसरे पर गिर रहे थे। थर-थर काँपते हुए सभी खेचर प्राणी भौंचक होकर विष्णुकुमार के मन्दराकार शरीर को देख रहे थे । यहाँ कथाकार ने ऋद्धिसम्पन्न तप की महावर्चस्विता से दीप्त मानव-शरीर के समक्ष व्यन्तर देवों की वर्चस्विता के तुच्छत्व की ओर संकेत किया है। 1 1 गुह्यकों (देवयोनि - विशेष) को कथाकार ने प्रच्छन्नचारी कहा है। वे प्रच्छन्न भाव से लोकचरित के द्रष्टा होते हैं : 'पच्छण्णचारियगुज्झया पस्संति जणचरियं' (सोमश्रीलम्भ : पृ. १९०) । उस समय यक्षों या यक्षिणियों के प्रति भी लोग विश्वास रखते थे । भूतगृह की भाँति यक्षगृहों की भी प्रतिष्ठापना उस युग की धार्मिक लोकप्रथाओं में अपना विशिष्ट महत्त्व रखती थी। संघदासगणी ने भी यक्षगृहों और यक्ष-यक्षिणियों की चर्चा की है। उन्होंने यह भी संकेतित किया है कि यक्ष-देवकुलों में अनेक दरिद्र पुरुष रहा करते थे, जिनसे बोझा ढोने का काम लिया था । अगडदत्तमुनि ने अपनी आत्मकथा में कहा है कि त्रिदण्ड परिव्राजक के पीछे-पीछे वह भी उज्जयिनी नगर में आया । वहाँ उस (परिव्राजक) ने बहुत ऊँचे महल में सेंध लगाई और उसके भीतर पैठ गया। थोड़ी देर में अनेक प्रकार की, धन से भरी पेटिकाएँ ले आया और वहाँ अगडदत्त को खड़ा करके चला गया। कुछ ही देर में वह परिव्राजक यक्ष- देवकुल से कतिपय दरिद्र पुरुषों को पकड़कर साथ ले आया ('ताव य सो आगतो जक्खदेउलाओ सत्थिल्लए दरिपुरिसे घेत्तूणं; धम्मिल्लहिण्डी ; पृ. ४०) । 'संघदासगणी द्वारा प्रस्तुत यक्ष-वर्णन से यह ज्ञात होता है कि उस समय लोगों के शरीर पर यक्ष का आगमन होता था और यक्षाविष्ट मनुष्य मद्यपायी की तरह विभिन्न प्रकार के कायविक्षेप करने लगता था । कथाप्रसंगवश लौकिक उदाहरण का आश्रय लेते हुए श्रमणवादी कथाकार ने
SR No.022622
Book TitleVasudevhindi Bharatiya Jivan Aur Sanskruti Ki Bruhat Katha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShreeranjan Suridevi
PublisherPrakrit Jainshastra aur Ahimsa Shodh Samsthan
Publication Year1993
Total Pages654
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size18 MB
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