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वसुदेवहिण्डी में प्रतिबिम्बित लोकजीवन
'वसुदेवहिण्डी' में सैकड़ों विद्याधर- विद्याधरियों का वर्णन किया गया है, जिनमें पन्द्रह विद्याधर-विद्याधरियों के नाम प्रमुखतया उल्लेख्य हैं। जैसे: अजितसेन, गौरिपुण्ड्र, जटायु, यशोग्रीव, धूमसिंह, धूमशिख, पुरुहूत, बलसिंह, मय, सहस्रघोष, सुग्रीव और सुघोष (विद्याधर), कमला, धनवती और वज्रमालिनी ( विद्याधरियाँ) । इनके अतिरिक्त, अनेक विद्याधर नरेश तथा विद्याधर रानियाँ अपने रूप, शील, गुण, वय और विद्या की दृष्टि से अतिशय महनीय स्थान रखते हैं । निस्सन्देह, 'वसुदेवहिण्डी' की कथा का मुख्य आकर्षण देवों और विद्याधरों के चरित्र की वह लोकातिशयता है, जिसकी अतिक्रान्ति के लिए मानवीय चेतना सतत संघर्ष और निरन्तर प्रयास करती है । और, सच पूछिए तो, इस महत्कथाकृति का मूल चेतनाप्रवाह देव, विद्याधर और मनुष्य के परस्पर आकर्षण - विकर्षण से ही परिचालित है ।
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यथावर्णित विद्याधर- विद्याधरियाँ विविध सुखभोग और केलिविलास के प्रतीक रूप में कथाकार द्वारा चित्रित हुई हैं । 'कथासरित्सागर' (१.१.९७-९८ ) में उल्लेख है कि पार्वती के कोई अपूर्व कथा कहने का निवेदन करने पर शिव कहते हैं कि विद्याधर की कथाएँ देवों की कथाओं से भी अधिक रोचक होती हैं। विद्याधरों की कथाओं ने, जो 'बृहत्कथा' का एक अंग बन चुकी थीं, प्राचीन ब्राह्मण- परम्परा के साहित्य को प्रभावित किया और जैन कथा - साहित्य में भी प्रवेश पा लिया। जैन परम्परा के अनुसार विद्याधर जैन धर्मानुयायी तथा तीर्थंकरों के प्रति श्रद्धावान् होते थे और उनका मुख्य निवास वैताढ्य पर्वत पर था, जहाँ पैदल या सवारी से जाना सम्भव नहीं था । आकाशगामिनी विद्या के बल से ही वहाँ जाया जा सकता था । आदि तीर्थंकर ऋषभनाथ के सम्बन्धी नमि और विनमि विद्याधर- निकायों के संस्थापक कहे गये हैं । नागराज धरण ने उन्हें बहुत-सी विद्याएँ दी थीं । नागराज की कृपा से ही दोनों कुमारों ने वैताढ्य पर्वत की उत्तर श्रेणी में गगनवल्लभ प्रभृति साठ नगर और दक्षिण श्रेणी में रथनूपुरचक्रवाल प्रभृति पचास नगर बसाये थे । वैताढ्य पर्वत पर जिन-जिन जनपदों से जो-जो मनुष्य आये, उनके जनपद, उन्हीं के नामों से प्रसिद्ध हुए । विद्याओं की संज्ञाओं के आधार पर विद्याधरों के कुल सोलह निकायों की रचना नमि और विनमि ने की थी, जिनमें आठ-आठ निकाय उन्होंने आपस में बाँट लिये थे । ये दोनों कुमार विद्याओं के बल से देव के समान प्रभावशाली होकर स्वजन - परिजन सहित एक साथ मनुष्य और देव का भोग-विलास प्राप्त करते थे (नीलयशालम्भ : पृ. १६४) ।
संघदासगणी ने विद्याओं के आधार पर विद्याधरों के प्रमुख सोलह निकायों की गणना इस प्रकार उपस्थित की है : गौरी से गौरिक, मनु से मनुपूर्वक, गान्धारी से गान्धार, मानवी से मानव, शिंका से शिकपूर्वक भूमितुण्डक विद्याधिपति से भूमितुण्डक, मूलवीर्या से मूलवीर्य, शंकुका शंकुक, पाण्डुकी से पाण्डुक, कालकी से कालकेय, मातंगी से मातंग, पार्वती से पार्वतेय, वंशलता से वंशलता, पांशुमूलिका से पांशुमूलक, वृक्षमूलिका से वृक्षमूलक तथा कालिका से कालकेश (तत्रैव : पृ. १६४) ।
नागराज धरण ने विद्याधरों के लिए आचारसंहिता बनाई थी कि यदि वे जिनायतन, जैनसाधु और किसी दम्पति की पवित्रता को विनष्ट करने की चेष्टा करेंगे, तो उनकी सिद्धि नष्ट हो जायगी । . विद्याधर विपद्ग्रस्त लोगों के सहायक होते थे और नीतिमार्ग से थोड़ा भी स्खलित होने पर उनका
१. 'तो धरणेण आभट्ठा — सुणह भो ! अज्जपभितिं साहियाओ विज्जाओ भे विहेया भविस्संति, सिद्धविज्जा वि य जिणघरे अणगारे मिहुणे वा अवरज्झमाणा भट्ठविज्जा भविस्सह ।' (बालचंद्रालम्भ: पृ. २६४).