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वसुदेवहिण्डी : भारतीय जीवन और संस्कृति की बृहत्कथा हड़बड़ाकर उठी और पत्ते के दोने में जल लाकर उसके मुँह पर छिड़कने लगी। होश में आते ही मिथुन पुरुष चिल्ला उठा : 'हा स्वयम्प्रभे ! कहाँ हो? मुझे उत्तर दो।' नर-मिथुन की बात सुनकर स्त्री-मिथुन सोचने लगी : 'मेरा ही नाम स्वयम्प्रभा है, मुझे ऐसा अनुभव क्यों हो रहा है?' ऐसा सोचते-सोचते वह भी नर-मिथुन की ही भाँति मूर्च्छित हो गयी। फिर, अपने-आप होश में आने पर बोली : 'आर्य ! मैं ही स्वयम्प्रभा हूँ, जिसका नाम आपने लिया है।' स्त्री की बात सुनकर पुरुष सन्तुष्ट होते हुए बोला : 'आर्ये ! तुम स्वयम्प्रभा कैसे हो?' तब स्त्री अपना पूर्वानुभव सुनाने
लगी (नीलयशालम्भ : पृ. १६५) । स्त्री-मिथुन की आत्मकथा सुनकर मिथुन पुरुष ने उससे कहा : 'आर्ये ! देवज्योति के दर्शन से जब मुझे जातिस्मरण हो आया, तब मेरी धारणा हुई कि तुम देवभव में हो। इसीलिए, तुम्हें स्वयम्प्रभा कहकर पुकारा था और तुमने जो आत्मकथा कही, उससे भी यह बात सत्य सिद्ध होती है (तत्रैव : पृ. १७७)।'
कथाकार के वर्णन से यह संकेतित होता है कि मनुष्य-भूमि पर आनेवाले देव के रूप में परिवर्तन हो जाता था। साथ ही, देव के सम्पूर्ण दिव्यरूप को देखने की क्षमता मनुष्य में नहीं होती थी। भरत ने इन्द्र से जब कहा कि देवलोक में आपका जो दिव्यरूप रहता है, उसे दिखाइए। तब, इन्द्र ने कहा कि मेरे सम्पूर्ण दिव्य रूप को देव से इतर कोई नहीं देख सकता। लेकिन,
आपको उसका एक अंश दिखाऊँगा। इसके बाद परम रूपवान् इन्द्र ने आभूषणयुक्त अपनी तर्जनी अंगुली दिखाई। अंगुली देखकर चमत्कृत भरत ने इन्द्र की आकृति की स्थापना कराई और बृहद् उत्सव का आयोजन कराया। उसी समय से 'इन्द्र-महोत्सव' की प्रथा का प्रवर्तन हुआ (सोमश्रीलम्भ : पृ. १८४)। इस प्रसंग की तुलना गीतोक्त, अर्जुन को भगवान् कृष्ण द्वारा दिखलाये गये दिव्य रूप के प्रसंग से की जा सकती है।
कथाकार ने देवसम्पात की परम्परागत प्रथा का भी वर्णन किया है। जैन आम्नाय की प्रथागत कथा है कि जब किसी अनगार या साध को केवलज्ञान की उत्पत्ति होती थी, तब देवता
आकाश से धरती पर उतरते थे और उनके प्रकाश से दसों दिशाएँ उद्भासित हो उठती थीं। प्रसन्नचन्द्र अनगार को जब ज्ञानोत्पत्ति हुई थी, तब उनकी वन्दना के लिए ब्रह्मेन्द्र के समकक्ष विद्युन्माली देव चार देवियों के साथ चारों और प्रकाश फैलाते हुए धरती पर आये थे : 'तं च समयं बंभिंदसमाणो विज्जुमाली देवो चउहिं देवीहिं सहितो वंदिउं भयवंतमुवागतो उज्जोवितो दसदिसाओ (कथोत्पत्ति : प. २०)।' देवों के स्वर्ग में रहते समय उनकी शरीरकान्ति बहत अधिक ज्योतिर्मय हुआ करती थी, किन्तु स्वर्ग से च्युत होते समय वे परिहीनद्युति हो जाते थे। इस सन्दर्भ में 'वसुदेवहिण्डी' से यह सूचना मिलती है कि जैन आम्नाय की परम्परा के अनुसार, केवलज्ञान, मनुष्य-भव के तद्भव की दशा में सम्भव होता है, अर्थात् जो पूर्वभव में मनुष्य रहता है और परभव में भी मनुष्य-विग्रह ही लाभ करता है, उसे ही केवलज्ञान की प्राप्ति होती है, इसलिए मनुष्य-योनि अतिशय प्रशस्त और दुर्लभ मानी गई है। और, केवलज्ञानी मनुष्य ही देह-वियोग के बाद अपने तपस्तेज की न्यूनाधिकता के आधार पर थोड़े या अधिक समय के लिए देव-विमान में देवत्व या इन्द्रत्व प्राप्त करते थे।
वैदिक परम्परा में मनुष्य-भव से सीधे देव-भव जाने की मान्यता नहीं है, अपितु मनुष्य-भव और देव-भव के बीच पितृ-भव की स्थिति मानी गई है। किन्तु, श्रमण-परम्परा में मनुष्य-भव से