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________________ ३९६ वसुदेवहिण्डी : भारतीय जीवन और संस्कृति की बृहत्कथा वासुदेव के समान दो पुत्र के रूप में उत्पन्न हुए। दोनों सुखपूर्वक बड़े हुए और नलिनीविजयार्द्ध का स्वामित्व प्राप्त किया। विभीषण कामभोग का परित्याग नहीं कर सका, फिर भी अपने विशुद्ध सम्यक्त्व और दर्शन-गुण से दूसरी पृथ्वी (शक प्रभा) में एक सागरोपम कालस्थिति तक के लिए नारकी हो गया। वीतिभय अपने भाई के वियोग से दुःखी होकर सुस्थित साधु के निकट प्रव्रजित हो गया और संयम तथा स्वाध्याय में तत्पर रहकर विहार करते हए उसने प्रायोपगमन (अनशन-विशेष)विधि से मृत्यु प्राप्त की और लान्तक कल्प के आदित्याभ विमान में वह ग्यारह सागरोपम से भी अधिक काल के लिए देव हो गया । नारकी विभीषण प्रशस्त परिणाम की बहुलता के कारण उद्वर्तित होकर इसी जम्बूद्वीप में ऐरवतवर्ष की अयोध्यानगरी में राजा श्रीधर्म की रानी सुसीमा के पुत्र श्रीदाम के रूप में उत्पन्न हुआ। क्रम से जब वह युवा हुआ, तब विहार-यात्रा के निमित्त निकला। पूर्वस्नेहानुरागवश आदित्याभ-विमानवासी देव ने उसे प्रतिबोधित किया। फलत:, वह अनन्तजित् अर्हत् के निकट प्रव्रजित हो गया और श्रामण्य का पालन करते हुए कालधर्म (मृत्यु) को प्राप्त हुआ। उसके बाद ब्रह्मलोक कल्प के चन्द्राभ विमान में देव हो गया (बालचन्द्रालम्भ : पृ. २६१)। उपर्युक्त विवरणों से यह स्पष्ट है कि एक-एक स्वर्ग में अनेक देव-विमान होते थे और यथोक्त सोलह स्वर्गों के ऊपर भी कल्पातीत देव-विमान थे। संघदासगणी ने कल्पातीत देव-विमानों में 'ग्रैवेयक' और 'सर्वार्थसिद्ध' का वर्णन किया है। कथा है कि सहस्रायुध और वज्रायुध, ये दोनों पिता-पुत्र प्रायोपगमन-विधि से समाधिपूर्वक देह का त्याग कर ऊर्ध्व ग्रैवेयक देवलोक में अहमिन्द्र नामक देव हो गये थे। सर्वार्थसिद्ध देवलोक का ऊपर उल्लेख हो चुका है। यों, कथाकार ने 'वसुदेवहिण्डी' में सर्वाथसिद्धि अनुत्तर विमान की भूरिश: चर्चा की है। प्रशस्त ध्यान में लीन रहते समय मृत्यु होने पर मृतक का सर्वार्थसिद्धि-गमन होता है (कथोत्पत्ति : पृ. १७) । तीर्थंकर नाम-गोत्र का संग्रह करनेवाले सर्वार्थसिद्धि विमान के अधिकारी होते हैं। ऋषभस्वामी सर्वार्थसिद्धि विमान से ही च्युत होकर मरुदेवी की कुक्षि में आये थे। कुन्थुनाथ, अरनाथ, शान्तिनाथ आदि तीर्थंकर भी सर्वार्थसिद्धि देव-विमान से ही च्युत होकर हस्तिनापुर में उत्पन्न हुए थे। संघदासगणी द्वारा उल्लिखित कल्पों या देवलोकों के देव-विमान इस प्रकार हैं : आदित्याभ (लान्तक और ब्रह्मलोक कल्प का विमान; बालचन्द्रालम्भ : पृ. २६१); कोंकणावतंसक (सौधर्म का विमान; सोमश्रीलम्भ : पृ. २२२-२२३); चन्द्राभ (ब्रह्मलोक; बालचन्द्रा. पृ. २६१-२६२); धूमकेतु (कल्प का उल्लेख नहीं; पीठिका : पृ. ९१), नन्दावर्त (प्राणतकल्प; केतुमती. पृ. ३२४), नलिनीगुल्म (अच्युतकल्प; बालचन्द्रा. पृ. २६१); पालक (नीलयशा. पृ. १६०), प्रीतिकर (ौवेयक कल्पातीत का विमान; बालचन्द्रा. पृ. २५७-२५८); पुष्पक (अच्युतकल्प; तत्रैव : पृ. २६१); ब्रह्मावतंसक, रिष्ट, रिष्टाभ, रुचक (ब्रह्मलोक; प्रियंगुसुन्दरी. पृ. २८७, सोमश्री, २२३, प्रियंगुसुन्दरी. पृ. २८७, बालचन्द्रा. २५८); वैडूर्य, स्वयम्प्रभ (महाशुक्र; सोमश्री. पृ. २२२, बालचन्द्रा. पृ. २५७); सर्वार्थसिद्ध (कल्पातीत विमान; नीलयशा. पृ. १५९, बालचन्द्रा. पृ. २६१ आदि); सागरभिन्न (नागभवन, प्रियंगु, पृ. ३००); श्रीतिलक (महाशुक्र, बालचन्द्रा. पृ. २२७); श्रीप्रभ (ईशान; नीलयशा. पृ. ११६, १७१); शुक्रप्रभ (लान्तक, तत्रैव : पृ. २५८ टि); सूर्याभ (ब्रह्मलोक; प्रियंगु, पृ. २८७); सुप्रभ (लान्तक विमान; बालचन्द्रा. पृ. २५८); स्वस्तिक (प्राणत विमान; केतुमती. पृ. ३२४) और सौधर्मावतंसक (सौधर्म विमान; प्रियंगु. पृ. २८६)। इनमें कतिपय देव-विमानों का ऊपर स्वर्ग के विवरण में यथासन्दर्भ उल्लेख किया गया है।
SR No.022622
Book TitleVasudevhindi Bharatiya Jivan Aur Sanskruti Ki Bruhat Katha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShreeranjan Suridevi
PublisherPrakrit Jainshastra aur Ahimsa Shodh Samsthan
Publication Year1993
Total Pages654
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size18 MB
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