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वसुदेवहिण्डी का स्रोत और स्वरूप डॉ. अग्रवाल ने जिस प्रकार कालिदास को गुप्तकालीन माना है, उसी प्रकार उन्होंने 'बृहत्कथाश्लोकसंग्रह' के रचयिता बुधस्वामी को भी गुप्तकालीन स्वीकारते हुए कहा है कि बुधस्वामी ने गुप्तकालीन स्वर्णयुग की संस्कृति के साँचे में 'बृहत्कथा' को ढालने का प्रयत्न किया है।" किन्तु, यह सिद्ध है कि केवल गुप्तयुग ही स्वर्णयुग नहीं था, अपितु जैसा पहले कहा गया, ईसवी-पूर्व प्रथम शती के विक्रम के युग से गुप्तयुग का सम्पूर्ण काल ही स्वर्णकाल था । इसी स्वर्णिम युग की दूसरी-तीसरी शती में 'बृहत्कथाश्लोकसंग्रह' की रचना हुई, जिसमें भारतीय संस्कृति की कला-चेतना
और अध्यात्मभावना के वरेण्यतम विकास को मूर्त रूप दिया गया, जो साहित्यिक आलोचना-जगत् में सौन्दर्यशास्त्रीय अध्ययन की दृष्टि से अपना विशिष्ट महत्त्व रखता है। क्योंकि, इस महत्कृति में मानव-ज्ञान की परिधि का अनन्त विस्तार है, जो सौन्दर्य-चेतना के विस्तार का अवच्छेदक तत्त्व है, साथ ही इसकी काव्यात्मक कथावस्तु का काव्येतर कलाओं के साथ सघन सम्बन्ध है।
'बृहत्कथाश्लोकसंग्रह' के अध्ययन में कई पाश्चात्य मनीषियों के नाम अनुकीर्तित होते रहते हैं। भारतीय विद्वानों में डॉ. अग्रवाल के अतिरिक्त डॉ. जगदीशचन्द्र जैन का नाम उल्लेख्य है। डॉ. जैन ने 'बृहत्कथाश्लोकसंग्रह' की रचनावधि पर स्वतन्त्रतया प्रकाश नहीं डाला है, किन्तु 'बृहत्कथाश्लोकसंग्रह' और 'वसुदेवहिण्डी' के तुलनात्मक अध्ययन में प्रयुक्त उनकी मनीषा प्रीतिकर है। डॉ. जैन, प्रो. लाकोत द्वारा निर्धारित बुधस्वामी के काल (नवम शती) के परिप्रेक्ष्य में ही यह निष्कर्ष-वाक्य कहते हैं कि 'वसुदेवहिण्डी' 'बृहत्कथाश्लोकसंग्रह' के पहले की रचना सिद्ध होती है। किन्तु, यह संगत नहीं है। क्योंकि, आचार्य नलिनजी के शब्दों में, पाश्चात्य विद्वानों ने भारतीय साहित्येतिहास के तिथिक्रम को जाने-अनजाने अनिश्चित तथा सन्दिग्ध बनाने में योग दिया है। ___ 'बृहत्कथाश्लोकसंग्रह' 'वसुदेवहिण्डी' से पूर्व की रचना है, यह सुविचारित तथ्य है। डॉ. जैन की, 'वसुदेवहिण्डी' से 'बृहत्कथाश्लोकसंग्रह' की परवर्तिता-विषयक मान्यता में इसलिए अधिक बल नहीं है कि वह प्रो. लाकोत की धारणा की पुनरावृत्ति-मात्र है। यों, डॉ. जैन संशोधनवादी प्रवृत्ति के उदार विचारक हैं-बहुत हद तक समन्वयवादी भी। इसलिए, वह समय-समय, शोध-विकास की दृष्टि से अपने विचारों में परिवर्तन भी करते हैं। 'वसुदेवहिण्डी' के काल-निर्धारण में उन्होंने वैसा ही किया है। ___ 'प्राकृत-साहित्य का इतिहास में डॉ. जैन लिखते हैं, “जिनभद्रगणिक्षमाश्रमण ने 'विशेषणवती' में इस ग्रन्थ ('वसुदेवहिण्डी') का उल्लेख किया है, इसी से संघदासगणी का समय ईसवी-सन् की लगभग पाँचवीं शती माना जाता है।” फिर, सत्रह वर्ष के बाद, सन् १९७८ ई. में डॉ. जैन अपने विचारों में संशोधन करते हुए अनुमान लगाते हैं : “इस ग्रन्थ ('वसुदेवहिण्डी') में जैन रामायण का प्राचीनतम रूप उपलब्ध है और जैन महाराष्ट्री का प्राचीनतम स्वरूप विद्यमान है, अतएव यह रचना ईसवी-सन् की दूसरी-तीसरी शती के आसपास लिखी हुई होनी चाहिए। १. द्रष्टव्य : ‘कथासरित्सागर' (प्रथम खण्ड) की भूमिका (प्र. पूर्ववत्), पृ.७ २. परिषद्-पत्रिका', वर्ष १७, अंक ४, पृ. ४६ ३. साहित्य का इतिहास-दर्शन' (प्र. पूर्ववत्), पृ. ११ ४. प्र. चौखम्बा विद्या-भवन, वाराणसी, संस्करण, १९६१ ई, पृ. ३८१ ५. परिषद्-पत्रिका', वर्ष १७, अंक ४, पृ. ४१