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वसुदेवहिण्डी : भारतीय जीवन और संस्कृति की बृहत्कथा यत्र-तत्र की है ('तत्य य पंथन्भासे एगस्स सालरुक्खस्स मूले'; धम्मिल्लहिण्डी : पृ. ६१)। प्राचीन वृक्षपूजा को प्रतीकित करनेवाली परम्परा वृक्षरोपण-सप्ताह या वन-महोत्सव के रूप में आज भी जीवित है। इण्डोनेशिया में वृक्षों से ही स्त्री-पुरुष के उत्पन्न होने का विश्वास बद्धमूल है। कहना न होगा कि वृक्षपूजा की महत्ता सार्वभौम स्तर पर स्वीकृत है तथा वनस्पति, पशु-पक्षी एवं मनुष्य एक ही चेतना के रूपभेद हैं। यहाँतक कि पर्यावरण की विविध प्रदूषणों से प्ररक्षा के लिए वनस्पतियों या पेड़-पौधों का अस्तित्व अनिवार्य है।
उपर्युक्त समष्ट्यात्मक चेतना के रूपभेद की धारणा के आधार पर ही संघदासगणी ने जैन दर्शन की मान्यता के परिप्रेक्ष्य में वनस्पति में जीवसिद्धि का विस्तारपूर्वक वर्णन किया है। यह वर्णन वसुदेव द्वारा, राजभय से उत्पन्न निर्वेद के वशीभूत होकर तापसधर्म स्वीकार किये हुए तपस्वियों को उपदेश के रूप में उपन्यस्त है । इस उपदेश का सारांश यह है कि सत्यवादी तीर्थंकरों के सत्य आगम-प्रमाण से वनस्पतियों को जीव मानकर उनपर श्रद्धा रखनी चाहिए। विषयोपलब्धि के क्रम में मनुष्य जिस प्रकार पंचेन्द्रियों से शब्द आदि विषयों का अनुभव करते हैं, उसी प्रकार ये वनस्पति-जीव भी जन्मान्तर-क्रियाओं की भावलब्धिवश स्पर्शेन्द्रिय से विषय का अनुभव करते हैं। इसी प्रकार, मेघ के गर्जनस्वर से कन्दली, कुडवक आदि की उत्पत्ति होती है, जिससे इनकी शब्दोपलब्धि की सूचना मिलती है। फिर, वृक्ष आदि का आश्रय प्राप्त करके बढ़नेवाली लता आदि को रूप की उपलब्धि होती है और इसी प्रकार धूप देने से किसी वनस्पति को गन्ध की उपलब्धि होती है तथा पानी पटाने से ईख आदि को रस की उपलब्धि होती है; जड़ आदि के काट देने से उत्पन्न संकोच (सिकुड़न) आदि से वनस्पति की स्पोपलब्धि की सूचना मिलती है; कमल आदि के पत्तों के सिमटने से उनकी नींद का संकेत प्राप्त होता है । साहित्यशास्त्र में स्त्रियों के नूपुरयुक्त पैरों के आघात (स्पर्श से अशोक आदि पेड़ों के विकसित होने की कविप्रसिद्धि प्राप्त होती है और इसी प्रकार असमय में फूल-फल के उद्गम से सप्तपर्ण वनस्पति के हर्षातिरेक का बोध होता है।
__ अथच, अनेकेन्द्रिय जीव उत्पत्ति और वृद्धिधर्म से युक्त होते हैं तथा उचित पोषण प्राप्त होने से स्निग्ध कान्तिवाले, बलवान्, नीरोग तथा आयुष्यवान् होते हैं एवं कुपोषण से कृश, दुर्बल और व्याधिपीड़ित होकर मर जाते है। इसी प्रकार, वनस्पतिकायिक जीव भी उत्पत्ति और वृद्धिधर्मवाले होते हैं तथा मधुर जल से सिक्त होने पर बहुत फल देनेवाले, चिकने पत्तों से सुशोभित, सघन और दीर्घायु होते हैं और फिर तीते, कड़वे, कसैले तथा खट्टे जल से सींचने पर वनस्पति जीवों के पत्ते मुरझा जाते हैं या पीले पड़ जाते हैं या रुखड़े हो जाते है और वे फलहीन होते तथा मर जाते हैं। इस प्रकार के कारणों से उन वनस्पतियों में 'जीव' है, ऐसा मानकर उनकी उचित रीति से रक्षा करनी चाहिए (बन्धुमतीलम्भ : पृ. २६७) ।
संघदासगणी द्वारा उपन्यस्त वृक्ष-वर्णनों में वृक्षों की पूजनीयता और महत्ता का विन्यास तो हुआ ही है, चमत्कृत करनेवाली अनेक मिथकीय चेतना भी समाहित हो गई है। कथाकार ने १. आधुनिक वैज्ञानिकों की भी यह मान्यता है कि रेडियो आदि की मधुर आवाज के सुनने से फसलों को संवर्द्धन प्राप्त होता है। इससे भी वनस्पति में शब्दोलब्धि की शक्ति विद्यमान रहने की सूचना मिलती है। साथ ही, इससे, प्रसिद्ध वैज्ञानिक जगदीशचन्द्र बसु के, वनस्पतियों में भी मनुष्य की तरह जैविक चेतना रहने के सिद्धान्त का समर्थन होता है।