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वसुदेवाहण्डी : भारतीय जीवन और संस्कृति की बृहत्कथा
___ 'वसुदेवहिण्डी' में दृष्टिविष सर्प का भी उल्लेख दो-एक स्थलों पर हुआ है। सरकण्डे के जंगल में रहनेवाले दृष्टिविष सर्प, उस वन के निवासी साधु को केवलज्ञान उत्पन्न होने पर, परम्परानुसार उत्पन्न देवज्योति से निर्विष हो गये थे। इसी प्रकार, चक्रवर्ती राजा सगर की कथा में उल्लेख है कि ज्वलनप्रभ नाग ने अपनी दृष्टि की विषाग्नि से राजा सगर के जह्ल प्रभृति साठ हजार पुत्रों को जलाकर भस्म कर दिया था। इससे स्पष्ट है कि दृष्टिविष सर्प की दृष्टि में ही विष रहता था। दृष्टिविष सर्प की दृष्टि के तेज से ही लोग भस्म हो जाते ते । ये आशीविष जाति के सर्प होते थे। 'स्थानांग' (४.५१४) में लिखा है कि उरगजातीय आशीविष अपने विष के प्रभाव से जम्बूद्वीप-प्रमाण (लाख योजन) शरीर को विषपरिणत तथा विदलित कर सकता है । यह उसकी विषात्मक क्षमता है। परन्तु, इतने क्षेत्र में उसने अपनी क्षमता का न तो कभी उपयोग किया है, न करता है, न कभी करेगा। निश्चय ही, सर्प यदि अपनी पूरी विष-क्षमता का उपयोग करने लगे, तो विश्व में आतंक फैल जाय।
'वसुदेवहिण्डी' में भयंकर विषवाले दो सौ का नामत: उल्लेख मिलता है—काकोदर सर्प और कुक्कुट सर्प। उद्यान में माधवीलता के हिंडोले में झूलते समय श्यामदत्ता को काकोदर सर्प ने काट खाया था (धम्मिल्लहिण्डी : पृ. ४६)। विष के वेग से वह अपना सिर धुनती हुई दौड़कर आई और 'आर्यपुत्र ! बचाइए' कहती हुई अगड़दत्त की गोद में जा गिरी और क्षणभर में अचेत हो गई। अगड़दत्त ने उसे उद्यानदेवता के मन्दिर के द्वार पर लाकर डाल दिया और विलाप करने लगा। आधी रात में दो विद्याधर आये। अगड़दत्त ने उन्हें अपना दुखड़ा कह सुनाया। दयालु विद्याधरों ने 'क्यों सो रही हो?' कहते हुए अचेत श्यामदत्ता के शरीर को छू दिया। वह निर्विष होकर उठ बैठी। विद्याधरदेव आकाशमार्ग से अदृश्य हो गये।
इसी प्रकार, एक दिन श्रीविजय अपनी पत्नी सुतारा के साथ ज्योतिर्वन में गया था। वहाँ एक मृगशावक को देख उसे खिलौना बनाने के लिए सुतारा का मन मचल उठा। श्रीविजय ज्योंही मृगाशावक को पकड़ने गया, त्योंही इधर कुक्कुट सर्प ने सुतारा को काट खाया। उधर मृगशावक भी आकाश में उड़ गया। श्रीविजय लौटकर आया, तो उसने सुतारा को धरती पर पड़ा देखा। तब मन्त्र और औषधि से उसकी चिकित्सा करने लगा। किन्तु, उसका कोई फल नहीं निकला। क्षणभर में ही सुतारा मर गई (केतुमतीलम्भ : पृ. ३१६)।
संघदासगणी ने साँप के काटने पर विषवैद्य द्वारा उसके विधिवत् उपचार का भी उल्लेख किया है (बालचन्द्रालम्भ : पृ. २५४)। भवितव्यता से प्रेरित राजा सिंहसेन एक दिन भाण्डार में घुसा और ज्योंही रत्नों पर दृष्टि डाली, त्योंही रत्न पर बैठे सर्प ने उसे डंस लिया और निकल भागा। वह 'अगन्धन' सर्प था। राजा के शरीर में विष का वेग फैलने लगा। सर्पवैद्य उपचार करने में जुट गये। गरुडतुण्ड नामक गारुडिक (आहितुण्डिक) ने साँपों को बुलाया। आवाहित साँप गारुडिक के समक्ष उपस्थित हुए। जो साँप अपराधी नहीं थे, उन्हें गारुडिक ने विदा कर दिया; लेकिन अगन्धन सर्प खड़ा रहा। गारुडिक ने विद्याबल से अगन्धन सर्प को राजा के शरीर से विष चूसने को प्रेरित किया, किन्तु पूर्ववैरानुबन्धजनित मानवश सर्प तैयार नहीं हुआ। तब गारुडिक ने उसे जलती आग में डाल दिया। अन्त में विष से अभिभूत राजा भी मर गया। ___ इस कथा से रत्नों के ढेर पर साँप के बैठे रहने की किंवदन्ती या लोकविश्वास की सम्पुष्टि होती है। 'वसुदेवहिण्डी' से यह भी सूचना मिलती है कि कच्चे मांस की गन्ध से साँप, कीड़े