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वसुदेवहिण्डी : भारतीय जीवन और संस्कृति की बृहत्कथा
किया और अपनी उस 'बृहत्कथा' के एक-एक पत्र को पढ़कर उसमें जलाना शुरू किया। मृग-पक्षी उसे सुनते और दोनों शिष्य अश्रुपूर्ण आँखों से गुणाढ्य को देखते थे। शिष्यों के अनुरोध से 'नरवाहनदत्तचरित' नामक एक भाग को गुणाय ने बचा लिया, जो एक लाख श्लोकों में था ।
जिस समय गुणाढ्य उस दिव्यकथा के एक-एक पत्र को पढ़कर जला रहा था, उस समय जंगल के सभी पशु - हिरन, सूअर भैंसे आदि झुण्ड में निश्चल होकर और चरना छोड़कर आँसू बहते हुए कथा को सुन रहे थे ।
इसी बीच राजा सातवाहन अस्वस्थ हो गया। वैद्यों ने बताया, सूखा मांस खाने के कारण राजा अस्वस्थ हो गया है। रसोइयों से पूछताछ की गई, तो उन्होंने बताया कि पर्वत के शिखर पर कोई ब्राह्मण एक-एक पत्र पढ़कर अग्नि में झोंक रहा है, इसलिए जंगल के समस्त प्राणी एकत्र होकर, निराहार रहकर उसे सुनते हैं । वे कहीं चरने के लिए नहीं जाते, इसीलिए उनका मांस सूख गया है ।
राजा कौतूहलवश गुणाढ्य के पास गया और पशु-पक्षियों के बीच बैठे उसे पहचानकर नमस्कार किया। फिर, गुणाढ्य द्वारा 'बृहत्कथा' का वृत्तान्त सुनकर और गुणाढय को माल्यवान् नामक शिवगण का अवतार जानकर राजा उसके पैरों पर गिर पड़ा और शिव के मुख से निकली वह दिव्यकथा उससे माँगी। तब, गुणाढ्य ने राजा सातवाहन से कहा कि "छह लाख श्लोकों में लिखी छह कथाएँ मैंने जला दीं। एक लाख श्लोक की एक कथा बची है, इसे ले लो। मेरे दोनों शिष्य (गुणदेव और नन्दिदेव) इस कथा के व्याख्याता होंगे।” ऐसा कहकर और योग-समाधि द्वारा अपने मानव-शरीर का त्याग कर शापमुक्त गुणाढ्य ने अपने पूर्व (माल्यवान्) पद को प्राप्त किया ।
राजा सातवाहन ने गुणाढ्य के दोनों शिष्यों की सहायता से उस कथा के प्रचार के लिए उसका देशभाषा (अपभ्रंश या आन्ध्रभाषा = तेलुगु = प्राक् द्रविड ) में अनुवाद कराया और कथापीठ (कथा के परिचयात्मक भाग) की भी रचना की ।' विचित्र रसों से परिपूर्ण एवं देवकथाओं को भुला देनेवाली यह कथा, सुप्रतिष्ठित नगर में निरन्तर प्रचारित होती हुई क्रमश: सारे भूमण्डल में प्रसिद्ध हो गई।
'कथासरित्सागर' के प्रथम लम्बक के यथाप्रस्तुत कथापीठ से यह भी आभास मिलता है कि शिव-पार्वती-संवादमूलक 'बृहत्कथा' की तेलुगु (प्राक् - द्रविड) - निबद्ध कोई आन्ध्र - प्रति भी रही होगी, जिसे राजा सातवाहन ने प्रचार के निमित्त अपनी देशभाषा में रूपान्तरित कराया था और जो बाद में समस्त भूमण्डल में प्रसिद्ध हुई थी। इस अनुमान की प्रत्यक्षसिद्धि 'बृहत्कथा' के अधीतियों के शोध प्रयास का उत्तरकल्प है। साथ ही, 'बृहत्कथा' के नये भाषिक आयाम की उपलब्धि के सन्दर्भ में तेलुगु (प्राक् - द्रविड) और पैशाची के तुलनात्मक भाषावैज्ञानिक अध्ययन की आवश्यकता भी अपेक्षित है। कन्नड़ और पैशाची का तुलनात्मक अध्ययन तो स्फुट रूप से हुआ भी है। ३
अस्तु;
१. तद्भाषयावतारं वक्तुं चक्रे कथापीठम् । – कथासरित्सागर, १.३७
२. यही कहानी 'नैपाल-माहात्म्य' (अ. २७-२९) में थोड़ी भिन्नता के साथ मिलती है।
३. द्र. 'सम्बोधि' (त्रैमासिक), अप्रैल-जुलाई, १९७७ ई., ला. द. भारतीय संस्कृति-विद्यामन्दिर, अहमदाबाद