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________________ ३५४ वसुदेवहिण्डी : भारतीय जीवन और संस्कृति की वृहत्कथा सूक्ष्मोज्ज्वल वस्त्र ही पहनती थीं और इसीलिए सूक्ष्मोज्ज्वल वस्त्र सांस्कारिक दिव्यता का प्रतीक था । वसुदेव जब गन्धर्वदत्ता के निमित्त आयोजित सांगीतिक अनुयोग-सभा में जा रहे थे, तब संगीताचार्य सुग्रीव की पत्नी (उपाध्यायानी) ने उन्हें सफेद महार्घ वस्त्र - युगल, अंगराग, फूल और पान देकर बिदा किया था ("दिण्णं च णाए पंडरं महग्धं च वत्थजुयलं समालभणं पुणतंबोलाइ" : गन्धर्वदत्तालम्भ: पृ. १२७) वसुदेव की विद्याधरी पत्नी भी उज्ज्वल पट्टटांशुक (रेशमी वस्त्र पहनती । (" धवलपडपट्टेसुयधरा अलंकारसुंदरीहिं अणुगम्ममाणी", प्रभावतीलम्भ: पृ. ३५१) किन्तु, सेठ चारुदत्त की जिस अमितगति नाम के विद्याधर से भेंट हुई थी, वह पीताम्बरधारी था ("ण्हायसरीरो तहेव पीयंबरो कणगाभरणभूसिओ"; गन्धर्वदत्तालम्भ: पृ. १३९) । संघदासगणी ने क्षौमवस्त्र का बहुधा उल्लेख किया है। एकाध बार चीनांशुक, कौशय और दुकूल की भी चर्चा की है। किन्तु वस्त्र के लिए सामान्यतः अपरिचित शब्दों का भी उल्लेख उन्होंने किया है। जैसे: दसिपूर और कसवर्द्धन । पीठिका में 'दसिपूर' और ग्यारहवें रक्तवतीलम्भ में ‘कसवर्द्धन' वस्त्र का वर्णन आया है। पीठिका की बलान्मूक राहुक की कथा (पृ. ८६) में कहा गया है कि उज्जयिनी से पाँच आदमी मगध आये। उनमें तीन वणिक्पुत्र थे और दो उनके सहयात्री नौकर (कर्मकर) थे । वणिक्पुत्रों में एक राहुक नाम का था। राहुक गोरे-साँवले (अर्थात् गेहुएँ) रंग का था। वह उजला कपड़ा पहने हुए (श्वेताम्बर) था और बरबस गूँगा (बलान्मूक) बना हुआ था । शेष दो वाणिक्पुत्र गोरे रंग के थे और सिन्दूरी रंग के कपड़े पहने हुए थे। दोनों नौकर काले-साँवले रंग के थे, जिनमें एक, कम्बल में बँधा पाथेय और कपड़े का गट्ठर ढो रहा था और दूसरा, 'दसिपूर' ( = सं. दशापूर) वस्त्र से बँधी गठरी लिये हुए था : "तत्येगो कंबलेण पाहेयं वत्थाई पोट्टलबद्धाई च वह इयरो अ दसिपूरवत्थेणं' (पृ. ८६) । ” 1 रक्तवतीलम्भ की कथा (पृ. २१८) है कि वसुदेव झील से निकलकर इलावर्द्धन नगर के राजमार्ग पर पहुँचे। राजमार्ग इतना प्रशस्त था कि उसपर अनेक रथ आसानी से एक साथ आ-जा सकते थे। वह अनेक रसिकों और विविध वेशधारी पुरुषों से भरा था। उन्होंने वहाँ दुकूल, चीनांशुक, हंसलक्षण, कौशेय, कसवर्द्धन आदि वस्त्र देखे, जो विक्रयार्थ फैलाकर रखे गये थे । विविध रंगों से निर्मित उन वस्त्रों में कुछ केसरिया रंग के थे, कुछ के रंग कमल और पलाशपुष्प की तरह थे, कुछ वस्त्र तो कबूतर की गरदन के रंग (राख के समान = 'ऐश कलर) की भाँति और कुछ प्रवाल और मैनसिल (लाल रंग की उपधातु) के रंग के समान थे। इस प्रकार के वस्त्रों के अतिरिक्त, विद्युत्कान्ति जैसे चमकनेवाले तथा मृगलोम से बने वस्त्रों एवं विभिन्न रंगों के ऊनी कम्बलों के भी ढेर लगे थे 1 'प्राकृतशब्दमहार्णव' में 'दशा' का अर्थ सूत या ऊन का छोटा और पतला धागा किया गया है। आप्टे ने भी 'दशा' का अर्थ (वस्त्र के छोर का) धागा ही दिया है। 'दसिपूर' का संस्कृत रूप यदि 'दशापूर' माना जाय, तो इसे दशा + पूर = ऊन के धागे से बुना गया ऊनी वस्त्र या कम्बल के प्रकार का वस्त्र कहना असंगत नहीं होगा। कम्बल से गठरी बाँधने की प्रथा तो आज भी प्रचलित है । और, मूल में वर्णित प्रसंगानुसार 'दसिपूर' का ऊनी कम्बल अर्थ ही उचित प्रतीत होता है । 'कसवर्द्धन' शब्द को कथाकार ने दुकूल, चीनांशुक, हंसलक्षण और कौशेय के साथ ही गिनाया है, इसलिए यह भी विशिष्ट प्रकार का रेशमी वस्त्र ही रहा होगा । यों, 'दुकूल' रेशमी वस्त्र
SR No.022622
Book TitleVasudevhindi Bharatiya Jivan Aur Sanskruti Ki Bruhat Katha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShreeranjan Suridevi
PublisherPrakrit Jainshastra aur Ahimsa Shodh Samsthan
Publication Year1993
Total Pages654
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size18 MB
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