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वसुदेवहिण्डी में प्रतिबिम्बित लोकजीवन
२९३ होता है । कहना न होगा कि 'वसुदेवहिण्डी' में, लोकजीवन के सन्दर्भ में उस काल की जन-संस्कृति
और सामाजिक अवधारणाओं का विस्तारपूर्वक उल्लेख हुआ है। इस सन्दर्भ में कथाकार ने कहीं-कहीं उसके गुणापचय की पराकाष्ठा भी दिखलाई है। सामाजिक मनुष्य के गुणात्मक उन्नयन में नैसर्गिक मांगल्य-शक्ति की प्रतिष्ठा कथाकार का चरम लक्ष्य है, इसलिए उद्दाम शृंगार या कामोष्ण भाषा में व्यक्त शृंगार भी कथा के कल्याणमूलक फलक पर चित्रित हो जाने के बाद सामाजिक वैभव के रूप में उन्मीलित हो जाता है। सामाजिक जीवन में चित्रित पुरुषार्थचतुष्टय की साधना और स्नैहिक अनुबन्ध या प्रणय के गाढाभिनिवेश का अतिशय उन्नत तथा लोकसत्य को मण्डित करनेवाला रूप 'वसुदेवहिण्डी' में पदे-पदे परिलक्षित होता है।
__कल्पना के कुबेर संघदासगणी ने लोकचित्रों को प्रस्तुत करने के क्रम में सामाजिक मनुष्य के विचारात्मक और भावात्मक परिवेश को बदलकर एक नई मनुष्यता की प्रतिमा गढ़ी है । महान् कथाकार संघदासगणी की सबसे बड़ी शैल्पिक विशेषता इस अर्थ में है कि वह अपनी कथा-रचना के पूर्वार्द्ध या उत्तरार्द्ध में पूर्वव्यक्त तथ्यों की आवृत्ति नहीं करते, अपितु अपनी 'भासा" या विशिष्ट प्रतिभा के द्वारा तथ्याभिव्यक्ति या वाग्वैकल्प्य की अनन्तता की सृष्टि करते हैं। इसलिए, उनके द्वारा परिकल्पित प्रत्येक लोकचित्र अनुक्रमश: रमणीय और नवीन प्रतीत होता है। डॉ. कुमार विमल के शब्दों में, “ऐसे कलाकार आस्तिकों के लिए ईश्वर की तरह होते हैं। ईश्वर की रचना-प्रक्रिया सर्वतन्त्रस्वतन्त्र होती है। इसलिए, ईश्वर की सृष्टि में पुनरावृत्ति नहीं होती। 'बेबीबूम' (दनदनाती शिशुवृद्धि) के इस युग में इतने बच्चे पैदा हो रहे हैं, लेकिन किन्हीं दो के चेहरे एक से नहीं लगते।" इसी प्रकार, कहना न होगा कि संघदासगणी की कलात्मक कथासृष्टि में परात्पर नवीनता का माधुर्य निरन्तर बना रहता है और उसकी रमणीयता कभी घटती नहीं है। अतएव, 'वसुदेवहिण्डी' के सामाजिक चित्रण सहृदयों के लिए निरन्तर श्लाघ्य बने रहते हैं, जिनसे सत्याभिव्यक्ति की दीप्ति निरन्तर समुद्भासित होती रहती है। कथा की रमणीयता का यह नैरन्तर्य उसमें न्यस्त चित्रणगत औचित्य पर निर्भर करता है। इसीलिए, क्षेमेन्द्र ने औचित्य को रससिद्ध काव्य का स्थिर जीवितसर्वस्व कहा है। - संघदासगणी सामाजिक परम्परित जीवन-मूल्यों के निजी बोध को उत्तरोत्तर समृद्ध करनेवाले कथाकारों में पांक्तेय स्थान के अधिकारी हैं क्योंकि, उन्होंने अपनी उत्कृष्ट रचनाशैली को कलात्मक आत्मनिष्ठता या वस्तुनिष्ठता पर निर्भर न करके उसे अपनी अन्तःप्रज्ञा द्वारा विकसित वस्तु-ग्रहण की शक्ति से संवलित किया है। इसलिए, उनकी कथारचना में केवल रूमानियत या भावुकता ही नहीं है, अपितु सामाजिक परिवेश के उपस्थापन-दायित्व के प्रति कलाकारोचित ईमानदारी भी बनी हुई है। इस प्रकार, उन्होंने कल्पनागत सत्य और वस्तुगत सत्य का समन्वय करके कलानुभूति और जीवनानुभूति का एक साथ उदात्त और परिष्कृत चित्र उपस्थित किया है। वस्तुत:, यथार्थ और कल्पना का पुंखानुपुंख सामंजस्य महान् कथाकृति की अपनी विशेषता होती है। इसीलिए,
१. भासा च नाम प्रतिभा महती सर्वगर्भिणी।" -महार्थमंजरी। २. कला-विवेचन, प्राक्कथन, पृ.६ । ३. औचित्यं रससिद्धस्य स्थिरं काव्यस्य जीविताम् ।” -औचित्यविचारचर्चा, कारिका ५ ।