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वसुदेवहिण्डी की पारम्परिक विद्याएँ जा सकता है और द्वितीय में संगीतकला जैसी अमूर्त श्रव्यकला की गणना की जा सकती है। इन दोनों प्रकार की कलाओं के प्रदर्शन में सौन्दर्यबोध-सम्पन्न कथाकार का मूल उद्देश्य 'सुन्दर' की अभिव्यक्ति या ‘सौन्दर्य' का विवर्द्धन है। प्रत्येक ललितकला के प्रयोग में भारतीय प्राचीन ललितकला के विशेषज्ञ कलाकार संघदासगणी ने प्राय: सर्वत्र अपनी सौन्दर्यमूलक शिल्परुचि का सातिशय वरेण्य उपस्थापन किया है । अतएव, उनका प्रत्येक कला-प्रस्तुतीकरण, सौन्दर्य की इकाई के रूप में, अपना सन्दर्भात्मक महत्त्व रखता है।
संघदासगणी-कृत ललितकलाओं के चित्रण में नन्दतिक बोध को सुरक्षित रखने की सतर्कता का नैरन्तर्य परिलक्षित होता है। फलत:, उनके कला-चिन्तन में सौन्दर्यशास्त्रीय दृष्टि से कल्पना के बहु-आयामी प्रकार निर्धारित किये जा सकते हैं। संघदासगणी जैसे महान् कलाकार ने अपनी कल्पना-प्रसूत मानसिक सर्जनाशक्ति द्वारा कथा के क्षेत्र में, निश्चय ही, रमणीय नूतन सृष्टि और अभिनव रूप-व्यापार का ऊर्जस्वल विधान किया है।
इस प्रकार, संघदासगणी, कला के क्षेत्र में, एक स्वतन्त्र भारतीय कलाचिन्तक के रूप में उभरकर सामने आते हैं। भारतीय साहित्य में कला-विभाजन की अवतरिणका बहुत विशद है। इसीलिए, संघदासगणी ने विना किसी साम्प्रदायिक आग्रह के, अपनी कथा में विभिन्न कलासम्प्रदायों का सरस तात्त्विक समन्वय विशुद्ध सौन्दर्य और आनन्द की सृष्टि की दृष्टि से किया है । फलत ; कथाओं के माध्यम द्वारा श्रव्य और दृश्य कलाओं की तात्त्विक अन्त:सम्बद्धता के सैद्धान्तिक और व्यावहारिक अध्ययन के दृष्टिकोण से 'वसुदेवहिण्डी' महत्त्वपूर्ण स्थान आयत्त करती है।
कला के साथ ही, भारतीय पारम्परिक विद्याओं का ज्ञानात्मक विश्लेषण 'वसुदेवहिण्डी' का महनीय मूल्यवान् पक्ष है । संघदासगणी द्वारा उपस्थापित प्राचीन पारम्परिक विद्याओं के विभावन में ज्ञान-प्रसार के साथ ही सौन्दर्य-चेतना का विस्तार भी अनुस्यूत है । इस सन्दर्भ में कथाकार की अलंकरण और प्रतिरूपण की सहज प्रवृत्ति परिलक्षित होती है। कुल मिलाकर, कथाकार की यह लौकिकातिलौकिक रचना-प्रवृत्ति आनन्ददायिनी सर्जना से ही सम्बद्ध है। पारम्परिक विद्याओं के विनियोग में यद्यपि 'अति' से 'यथार्थ' आच्छन्न हो गया है, तथापि उनकी नन्दतिक चेतना सर्वत्र अप्रतिहत और अव्याहत है। यह अतिवादी स्थति प्राचीन कथाकारों की कथाशैली की अपनी उल्लेखनीय विशिष्टता रही है और इसी में प्राचीन महत्कथाओं की अपनी 'निजता' और 'मौलिकता' सुरक्षित है। प्राकृतिक और भौतिक जगत् की भयंकरताओं, अनिष्टों और उद्वेलनों से बचने या आत्मरक्षा के लिए आदिम समाज का अदृश्य संरक्षक के रूप में पारम्परिक विद्याओं का आश्रय लेना कालोचित था। इसलिए, 'वसुदेवहिण्डी' की रहस्यात्मक पारम्परिक विद्याओं का अध्ययन तदानीन्तन सामाजिक मनोवृत्ति के परिप्रेक्ष्य में ही वांछित है। फिर भी, इतना ध्यातव्य है कि 'वसुदेवहिण्डी' की, विरामकाल पर पहुँची हुई, नागर संस्कारों से मण्डित आदिम विद्याएँ या कलाएँ नन्दतिक पर्युत्सुकता से समृद्ध सौन्दर्य-चेतना और मानव-ज्ञान के विषय-विपुल परिधि- विस्तार के नये वातायन का समुद्घाटन करती हैं।