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________________ वसुदेवहिण्डी की पारम्परिक विद्याएँ यदि च ग्राहयेत्किञ्चित्त्वां नागाधिपतिस्ततः । सनागमूर्च्छना ग्राह्या वीणा घोषवती त्वया ॥ (बृहत्कथाश्लोकसंग्रह, ५.१४०) उपर्युक्त सन्दर्भ से कथाकार संघदासगणी भारतीय संगीतशास्त्र में गहरी पैठ का सहज ही अनुमान होता है । यहाँ ज्ञातव्य है कि कला की संख्या की भाँति प्राचीन भारतीय संगीत की राग-रागिनियों की संख्या भी अनिश्चित है । हालाँकि, भारतीय संगीतशास्त्र में छह प्रसिद्ध राग तथा छत्तीस रागिनियों को ही प्रातिनिधिक महत्त्व प्राप्त है। छह प्रमुख रागों (भैरव, श्री, मालकोश, दीपक, मेघ और हिण्डोल) के नामों में भी भिन्नता मिलती है। पौराणिक कथा है कि रागों की उत्पत्ति शिव और पार्वती के संयोग से हुई है। महादेव के पाँच मुख से पाँच और पार्वती के एक मुख एक— इस प्रकार कुल छह रागों का आविर्भाव हुआ है । महादेव के सद्योजात मुख से श्रीराग, वामदेव मुख से वसन्त राग, अघोरमुख से भैरव राग, तत्पुरुष मुख से पंचम राग तथा ईशानमुख से मेघराग एवं पार्वती के मुख से नट्टनारायण राग उत्पन्न माने जाते हैं। संघदासगणी द्वारा चर्चित नागराग और किन्नरगीत का उल्लेख उनके पूर्ववर्ती भरत के नाट्यशास्त्र में नहीं मिलता है और परवर्ती संगीतशास्त्रियों ने नागराग या किन्नरगीत की चर्चा नहीं की है। ऐसी स्थिति में संघदासगणी का एतद्विषयक आधारस्रोत का ठीक अनुमान सम्भव नहीं है और यह संगीताचार्यों के लिए महत्त्वपूर्ण विवेचनीय विषय है। फिर भी, इतना कहा जा सकता है कि भरत-प्रोक्त राग (अंश के प्रसंग में उल्लिखित ') जातियों के अत्यन्त मनोहर संघटित रूप को कहते हैं। सिंह (शिंग) भूपाल ने भी कहा है: “जातिसम्भूतवाद् रागाणाम् । राग का विशेष गुण यह है कि यह असाधारण रूप से आकर्षक होता है तथा इसमें शब्दों द्वारा अनिर्वचनीय आनन्द देने की शक्ति निहित रहती है ('रज्यते यस्मात्स रागः' या 'रञ्जयति यः स रागः ) । दूसरे शब्दों में, राग जातियों के रमणीक संघटन से उत्पन्न आनन्द का अनुभव है । संघदासगणीप्रोक्त नागराग, अनुमानतः नागजाति (गन्धर्वजाति के समकक्ष नागराज धरण) के मुख से उत्पन्न आनन्ददायक राग-विशेष से सम्बद्ध कोई अपूर्व राग रहा होगा और किन्नरगीत स्पष्ट ही किन्नरों द्वारा गाई जानेवाली विशिष्ट गीतविधा होगी । यों, संघदासगणी ने गीत की जो परिभाषा प्रस्तुत की है, उसमें नृत्य और नाट्य का भी समावेश हो जाता है। और इस प्रकार, वह 'गीतं नृत्यं तथा वाद्यं त्रयं सङ्गीतमुच्यते' का समर्थक जान पड़ते हैं। उन्होंने लिखा है कि 'परस्पर समागम के अभिलाषी स्त्री-पुरुष, एक दूसरे के क्रुद्ध होने पर, प्रसन्न करने के निमित्त कुशल व्यक्तियों के चिन्तन प्रसूत तथा विविध जातियों (प्रकारों) में निबद्ध शरीर, मन और वचन की जिस क्रिया का प्रयोग १. विशेष विवरण के लिए द्रष्टव्य : कलाविवेचन (पूर्ववत्, पृ. १०४ २. स्वरसाधारणगतास्तिस्त्रो ज्ञेयास्तु जातयः । मध्यमा पश्चमी चैवा षड्जमध्या तथैव च ॥ ग्रहस्तुसवजातीनामंश एव हि कीर्त्तितः । २८५ यस्मिन्वसति रागस्तु यस्माच्चैव प्रवर्त्तते ॥ नाट्यशास्त्र, २८.३६,७१, ७२ ३.४. 'स्वतन्त्र कलाशास्त्र' (तदेव) : डॉ. कान्तिचन्द्र पाण्डेय, पृ. ५५१-५५२ لا
SR No.022622
Book TitleVasudevhindi Bharatiya Jivan Aur Sanskruti Ki Bruhat Katha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShreeranjan Suridevi
PublisherPrakrit Jainshastra aur Ahimsa Shodh Samsthan
Publication Year1993
Total Pages654
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size18 MB
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