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वसदेवहिण्डी:भारतीय जीवन और संस्कृति की वृहत्कथा
की दो दासी नर्तकियाँ थीं। ये दोनों नृत्य, नाट्य और संगीतकलाओं में निष्णात थीं। इनका स्वर अतिशय मधुर था। स्वयं नारद ने विद्याधरराज दमितारि के पास जाकर इन दोनों नर्तकियों की प्रशंसा करते हुए कहा था कि “अपराजित और अनन्तवीर्य की दासी बर्बरी और चिलातिका का नाटक बड़ा दिव्य होता है।" उन्होंने विद्याधरराज से यह भी कहा कि “उन नर्तकियों के नाटक से रहित तुम्हारा राज्य, वाहन और विद्याधरत्व सब व्यर्थ है (केतुमतीलम्भ : पृ. ३२५)।"
संघदासगणी के अनुसार, नाटक की पात्रियों को दहेज में देने की भी प्रथा उस समय प्रचलित थी। नर्तकियों को दहेज में देना गौरव का विषय होता था। प्राचीन युग में भजन, संगीत आदि की दृष्टि से देवालय भी ललितकला के प्रमुख केन्द्रों में अन्यतम था। अतएव, वेश्याओं का देवालयों से बहुत प्राचीन सम्बन्ध रहा है। 'चतुर्भाणी' में ही कई जगह वेश्याओं का मन्दिरों में गाने-बजाने का उल्लेख है। संघदासगणी ने भी गणिकाओं की, देवकुल के प्रति श्रद्धाभाव की अनुशंसा की है। धम्मिल्ल के निर्धन हो जाने के बाद, एक दिन वसन्तसेना, वसन्ततिलका के लिए, पेरकर रस निकाल लेने के बाद बचे हुए कुछ सफेद इक्षुखण्ड ले आई। जब वह उन्हें खाने लगी, तब वे नीरस लगे। तब माँ ने उससे कहा: “जिस प्रकार ये इक्षुखण्ड नीरस हैं, उसी प्रकार धम्मिल्ल भी, इसलिए उसे छोड़ दो।” वसन्ततिलका ने कहा : “नहीं, यह भी काम की चीज है। इससे देवगृह (देवकुल) लीपने के लिए मिट्टी (गोबर) घोलने का काम लिया जायगा (धम्मिल्लहिण्डी : पृ. ३२)। इससे स्पष्ट है कि वसन्ततिलका श्रद्धापूर्वक देवकुल जाती थी और वहाँ की भूमि को लीपकर पवित्र करती थी। इसके अतिरिक्त, वसन्तसेना द्वारा कर्बट देवता के उत्सव का आयोजन और फिर गन्ध, धूप, पुष्प और नैवेद्य के साथ गृहदेवता का पूजन आदि क्रियाओं से भी वेश्या की देवकुल के प्रति श्रद्धाभावना का व्यक्तीकरण होता है (तत्रैव, पृ. ३३)।
नायक के साथ प्रीति हो जाने पर वेश्या एकचारिणी व्रत का पालन करती थी। वसन्तसेना ने जब धम्मिल्ल का निर्वासन कर दिया, तब उसकी पुत्री वसन्ततिलका ने धम्मिल्ल के प्रति प्रीति की एकनिष्ठता के कारण प्रतिज्ञा की : “अपने स्वामी के प्रति सत्प्रतिज्ञ मैं अपनी वेणी बाँधती हूँ, यह मानकर कि मेरा प्रियतम आकर इसे खोलेगा।" यह कहकर वह गन्ध, माला, अलंकार 'आदि का उपयोग छोड़कर केवल शरीर-रक्षा के लिए अन्न-पान ग्रहण करती हुई शुद्ध भावना से समय बिताने लगी। बहुत दिनों के बाद धम्मिल्ल के साथ फिर उसका मिलन हुआ (तत्रैव, पृ. ३५)।
वेश्याएँ ललितकला की शिक्षिकाएँ भी होती थीं। उस युग के राजा या सेठ अपने पुत्रों को वेश्याओं के घर भेजकर शिक्षा दिलवाते थे। 'वसुदेवहिण्डी' में कथा है कि श्रेष्ठिपुत्र चारुस्वामी को 'अर्थपरिभोक्ता' बनाने के लिए उसकी माता ने उसे गणिका के घर भरती कराने की जोरदार सिफारिश की थी (गन्धर्वदत्तालम्भ : पृ. १४१)। उसने चारुस्वामी के गोमुख आदि मित्रों से कहा था कि यदि मेरा पुत्र, धन नष्ट करके भी वेश्यागृह में पहुँच जाता है, तो मेरा मनोरथ पूर्ण समझो : “जति वित्तं विणासेइ वेसवसं पत्तो ततो पुण्णो मे मनोरहो” (तत्रैव : पृ. १४१-१४२) । इसके बाद गोमुख आदि मित्रों ने चारुस्वामी को उद्यान में ले जाकर मद्यपान कराया और युक्तिपूर्वक वसन्ततिलका के जिम्मे लगा दिया। नशे के आवेश में चारुस्वामी को वसन्ततिलका अप्सरा जैसी दिखाई पड़ती थी। वह अप्सरा उसे रथ पर चढ़ाकर अपने घर ले गई। वहाँ उसने उसे रथ से उतारा । वहाँ उसी के समान उम्रवाली और युवतियों ने उसे घेर लिया। अप्सरा ने उससे कहा :