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वसुदेवहिण्डी की पारम्परिक विद्याएँ
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नियुक्ति होती थी । किन्तु, इस सन्दर्भ में एक और बात ध्यातव्य है कि ये गणिकाएँ (कन्याएँ) राजवर्ग को राजा भरत की ओर से वितरण में, विना विवाह - विधि के, मिली थीं, इसलिए उन राजाओं ने भी उन्हें अपने अन्तःपुर में नहीं रखा, अपितु स्वतन्त्र रखकर कलाओं की शिक्षा और अभ्यास की ओर उन्मुख किया। फलतः वे ललितकला की प्रगल्भ मर्मज्ञा होकर अपनी कला - वर्चस्विता से राजसमाज में समादृता बनीं। इसलिए, वेश्याओं में गणिका सबसे ऊँचे दरजे की होती थी और क्रयदासी सबसे नीचे दरजे की ।
'वसुदेवहिण्डी' की गणिकोत्पत्ति की कथा का विशद रूपान्तर बुधस्वामी के 'बृहत्कथाश्लोकसंग्रह ' (१०.१८२ - १८९) में भी उपलब्ध होता है। कथा यह है कि धर्म, अर्थ और काम के महान् साधक भरत नाम के राजा थे। उन्होंने महोदधि से कमनीय कुमारियों को प्राप्त किया । उन्होंने सोचा कि एकान्त में इन सबसे विवाह करके मैं निरन्तर विविध सुखों का भोग करूँगा । किन्तु, उन्होंने सर्वप्रथम जिस कन्या के काँपते हुए हाथ को ग्रहण किया, उसी की, शुद्ध पुण्य से अर्जित सुन्दराकृति में ही वह सन्तुष्ट हो गये । अतः उन्होंने शेष कन्याओं के, मन और आँखों को आकृष्ट करनेवाले तथा कामदेव की भाँति कान्तिमान् रूपवाले आठ गण बना दिये । और, प्रत्येक गण की जो प्रधान थी, उसे झमकनेवाले गहनों से अलंकृत किया गया और राजा भरत ने उसे विशिष्ट आसन, छत्र और चँवर रखने की आज्ञा दी। इस कोटि से भिन्न जो दूसरी - दूसरी महागुणवती कन्याएँ थीं, उन्हें गुण के अनुसार 'घटककटि', 'संघट्टकटि', 'कठोरकटि', 'खल' आदि संज्ञाएँ राजा की ओर से दी गईं। आज भी जो गणिकाभेद देखा जाता है, उसका प्रवर्त्तन उसी समय से भरत द्वारा किया गया है।
'वसुदेवहिण्डी' में अनेक गणिकाओं और उनके पुत्र-पुत्रियों का नामोल्लेख हुआ है । जैसे: अनंगसेना (प्रियंगुसुन्दरीलम्भ: पृ. २९३ २९४), अनन्तमति (केतुमतीलम्भ: पृ. ३२१, ३२२); अमितयशा (पीठिका: पृ. १०३); कलिंगसेना ( प्रियंगुसुन्दरीलम्भ : पृ. २९३); गणिकापुत्री कामपताका (तत्रैव : पृ. २९३, २९४, २९७, २९८); कालिन्दसेना (पीठिका: पृ. ९८, १०२-१०४); गणिकापुत्र कुबेरदत्त (कथोत्पत्ति : पृ. ११, १२); कुबेरदत्त (तत्रैव : पृ. ११); कुबेरसेना (तत्रैव : पृ. १०, ११, १२); चित्रसेना (प्रियंगुसुन्दरीलम्भ: पृ. २९३), गणिकापुत्री बुद्धिसेना (बालचन्द्रालम्भ : पृ. २५९, २६०), रतिसेनिका या रतिसेना (प्रियंगुसुन्दरीलम्भ: पृ. २८९); रंगपताका (तत्रैव : पृ. २८९); गणिकापुत्री वसन्ततिलका (धम्मिल्लहिण्डी : पृ. २८, २९, ३१.३३, ३५); वसन्तसेना (तत्रैव: पृ. २८, ३१, ७२), सुदर्शना (केतुमतीलम्भ: पृ. ३२९), सुप्रबुद्धा ( बालचन्द्रालम्भ : पृ. २५९); सुसेना (केतुमतीलम्भ: पृ. ३३३); गणिकापुत्री सुहिरण्या (पीठिका: पृ. ९८, १०१-१०४, मुख : १०९) और हिरण्या (पीठिका: पृ. १०१) । इन गणिकाओं के अतिरिक्त संघदासगणी ने संगीत और नृत्य में निष्णात कतिपय नर्तकी दासियों का भी उल्लेख किया है । जैसे : कामपताका (प्रियंगुसुन्दरीलम्भ: पृ. २८१); विलासिनी (तत्रैव), किन्नरी (तत्रैव); मधुरक्रिया (तत्रैव); हासपोट्टलिका (तत्रैव); रतिसेनिका (तत्रैव पृ. २८२); कौमुदी (तत्रैव) और पद्मिनी (तत्रैव)। ये सब वसुदेव की पत्नी प्रियंगुसुन्दरी के मनोरंजन के लिए उसके निकट रहनेवाली नर्तकियाँ थीं (पियंगुसुंदरिसंतियाओ नाडइज्जा त्ति) । इनके अतिरिक्त, राजा स्तिमितसागर के पुत्र अपराजित और अनन्तवीर्य के दरबार में बर्बरी और चिलातिका (किराती) नाम
१. द्रष्टव्य : चतुर्भाणी (शृंगारहाट), भूमिका, पृ. ७७