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वसुदेवहिण्डी : भारतीय जीवन और संस्कृति की वृहत्कथा ____संघदासगणी ने अपनी नृत्यकलामर्मज्ञता प्रदर्शित करते हुए कहा है कि वसन्ततिलका जब नृत्य के उपयुक्त भूमि पर प्रशस्त नृत्य कर रही थी, तब उसका शृंगार और आभरण से सज्जित रूप-लावण्य दर्शनीय हो उठा था; विलास का आवेश और मधुर स्वर उसके नृत्य में चार चाँद लगा रहे थे; वह अपना पदनिक्षेप शास्त्रोपदिष्ट पद्धति से कर रही थी; परुषाक्षर
और मधुराक्षर के अनुरूप उसका आलाप था; वह अपने हाथ, भौंह और मुँह के अभिनय, . हाव-भाव (बिब्बोक) और नेत्रसंचार से श्रेष्ठ नृत्यकला में आश्चर्यजनक कुशलता का प्रदर्शन कर रही थी; हाथ के अतिरिक्त, उसके अंग-प्रत्यंग की विभिन्न क्रियाओं के संचारण की विधि में अद्भुत सामंजस्य था; तन्त्री (वीणा) का स्वर, ताल और गीत के बोल से मिश्रित उसका नृत्य सचमुच बड़ी दिव्यता के साथ समाप्त हुआ। उसके दिव्य नृत्य की समाप्ति पर सभी दर्शक सहसा बोल उठे– “ओह ! अद्भुत !!" (तहिं च दिव्वसमाणे णट्टावसाणे णच्चिए सव्वपासणिएहिं 'अहो ! ! ! विम्हउ' त्ति सहसा उक्कुटुं"; (धम्मिल्लहिण्डी : पृ. २८)।।
प्रस्तुत नृत्यचित्र में कथाकार ने नृत्य, नाट्य, संगीत और वाद्य इन सभी कलाओं का रसवर्षी समन्वय उपस्थित किया है। वसन्ततिलका ने वस्त्रभूषा पहनकर अपनी आँखों और भौंहों तथा शरीर के अन्य अंग-प्रत्यंग के परिचालन द्वारा अपनी नृत्यकला में विशिष्ट मानसिक दशा को प्रदर्शित किया है। गीत, नृत्य (नाट्य) और वाद्य, इन तीनों कलाओं का सामूहिक नाम संगीत है, अतएव इस नृत्य में संगीतकला से उद्भूत अनुभव के लोकोत्तर तल पर आनन्द की अनुभूति की सृष्टि हुई है। वसन्ततिलका में, नृत्यकला के द्वारा तन्मयता उत्पन्न करने की अद्भुत शक्ति निहित थी, इसलिए सभी दर्शक इन्द्रियबोध के स्तर से आत्मविस्मृति के स्तर तक और फिर वहाँ से तन्मयता के स्तर तक पहुँचकर अपने-अपने व्यक्तित्व को वसन्ततिलका के व्यक्तित्व में लय कर देते हैं, उसके भावात्मक अनुभवों की अनुभूति स्वयं करने लगते हैं और तब उनकी ज्ञानदशा रसदशा में परिवर्तित हो जाती है। और फिर, रस की चर्वणा-क्रिया या अनुभूति के प्रतिचिन्तन द्वारा वे एक ऐसी उदात्त ध्यानावस्थित मनोभूमि में पहुँच जाते हैं, जहाँ नवयौवना क्रीडामयी गणिकासुन्दरी सुरवधू या देवांगना के रूप में भासमान हो उठती है। इसीलिए, जब राजा शत्रुदमन धम्मिल्ल से पूछता है कि “गणिका ने कैसा नृत्य किया", तब धम्मिल्ल उत्तर देता है : “सुरवधू के नृत्य के समान नृत्य किया (तत्रैव)।"
नृत्य से रसाभिव्यक्ति के सम्बन्ध में आचार्य भरत का कथन है कि विविध प्रकार के नृत्त (नृत्य) विविध रसों को अभिव्यक्त करते हैं। नृत्य के साथ होनेवाले गीत के स्वर उन भावों को व्यक्त करने में सफल हो जाते हैं, जिनको काव्यभाषा व्यक्त नहीं कर सकती है।' इस प्रकार, भरत के मतानुसार नृत्य भी रसाभिव्यक्ति का एक साधन है।
गणिका : ललितकला की आचार्या :
संघदासगणी ने 'वसुदेवहिण्डी' की मुख्यकथा वसुदेवचरित के व्यापक प्रसंग में कलावती विदुषी गणिकाओं के रसोच्छल चित्रों का अन्तर्गर्भ विनियोग कर यह सिद्ध किया है कि उस
१. अभिनवभारती, १.१७५ और १८२ ।