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वसुदेवहिण्डी की पारम्परिक विद्याएँ शुषिर : फूंक से बजाये जानेवाले वाद्य को शुषिर कहा जाता है। भरत मुनि ने इसके अन्तर्गत वंशवाद्य को 'अंगभूत' और शंख तथा डिक्किनी आदि वाद्यों को 'प्रत्यंग' कहा है।' यह माना जाता था कि वंशवादक को गीत-सम्बन्धी गुणों से युक्त तथा बलसम्पन्न और दृढानिल होना चाहिए। जिसमें प्राणशक्ति की न्यूनता होती है, वह शुषिर वाद्यों को बजाने या फॅकने में सफल नहीं हो सकता। भरत के 'नाट्यशास्त्र' के तीसरे अध्याय में इनके वादन का विस्तृत वर्णन प्राप्त होता है। वंशी प्रमुख शुषिर वाद्य है और यह वेणुदण्ड से बनाई जाती है।
"ठाणं' के यथोल्लिखित गेयपदों में दो- रोविन्दक और मन्द्रक का भरतनाट्योक्त रोविन्दक और मन्द्रक से साम्य है। भरत नाट्यशास्त्र (३१.२८८-४१४) में 'सप्तरूप' के नाम से प्रथित प्राचीन गीतों का विस्तृत वर्णन है। इन गीतों के नाम हैं : मन्द्रक, अपरान्तक, प्रकरी, ओवेणक, उल्लोप्यक, रोविन्दक और उत्तर ।
इस प्रकार, उपरिविवृत नृत्य, नाट्य और संगीत-वाद्यों के विवेचन से प्राचीन भारतीय विचारकों और संगीतकारों के सातिशय विलक्षण विश्लेषणात्मक प्रतिभा का परिचय मिलता है। यहाँ, यथानिवेदित ललितकला के तत्त्वों के परिप्रेक्ष्य में 'वसुदेवहिण्डी' में प्राप्य नृत्य, नाट्य और सांगीतिक सन्दर्भो का पर्यवेक्षण प्रसंगोपात्त है।
संघदासगणी ने ललितकला के मुख्य केन्द्र के रूप में ललितगोष्ठी और नृत्यगोष्ठी का उल्लेख किया है। उस समय के युवराज ललितगोष्ठियों में अपने गोष्ठिकों (मण्डली) के साथ मदविह्वल युवतियों के नृत्य, गीत और वादित्र का आनन्द लेते थे (धम्मिल्लहिण्डी : पृ. ६४)। गोष्ठियों के मुखिया (महत्तरक) के आदेश और निर्देश सभी गोष्ठिकों के लिए मान्य होता था (तत्रैव : पृ. ५८)। ये ललितगोष्ठियाँ गोष्ठिकों को रतिविचक्षणता का प्रशिक्षण देती थीं।
धम्मिल्लचरित (पृ. २८) में कथा आई है कि धम्मिल्ल विवाह होने के बाद भी स्त्री से पराङ्मुख रहता था। तब उसकी माँ सुभद्रा ने विषय-विमुख अपने पुत्र को 'उपभोगरतिविचक्षण' बनाने के निमित्त उसे ललितगोष्ठी में प्रवेश दिलवा दिया। उसके बाद वह (धम्मिल्ल) अपनी मण्डली के मित्रों के साथ उद्यान, कानन, सभा, वनान्तर आदि स्थानों में ज्ञान, विज्ञान आदि कलाओं में परस्पर एक-दूसरे से बढ़-चढ़कर कौशल दिखलाता हुआ समय बिताने लगा। .
एक दिन शत्रुदमन नाम के राजा ने ललितगोष्ठी के मुखिया से कहा कि “मैं वसन्तसेना गणिका की पुत्री वसन्ततिलका की नृत्यविधि पहली बार देखना चाहता हूँ, इसलिए कोई नृत्य का जानकार मुझे दीजिए।" गोष्ठी के सदस्यों ने धम्मिल्ल को उसके साथ कर दिया। राजा के अन्य आचार्य भी उसके साथ थे। राजा उनके साथ ललितगोष्ठी में बैठा। उसके बाद वसन्ततिलका ने आकर नृत्य के उपयुक्त नयनमनोहर रंगभूमि पर संगीत, वाद्य, स्वर, ताल और हाव-भाव के साथ अपना नृत्य प्रस्तुत किया। वेश्यापुत्री ने नृत्यविधि शास्त्रीय पद्धति से प्रस्तुत की थी।
१. भरत : नाट्यशास्त्र, ३३.१७ २. उपरिवत्,३३.४६४