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________________ वसुदेवहिण्डी की पारम्परिक विद्याएँ २६३ धर्म और काम (शृंगार) के बीच त्रिशंकु की तरह टँगा हुआ भारतीय कलाकार सौन्दर्य को स्वयं एक व्यापक विभु मानकर समादृत नहीं कर सका है। "" किन्तु, संघदासगणी की ध्यातव्य विशेषता यह है कि उन्होंने कलादृष्टि की इस सीमा को अपनी कथा के शिल्प की उद्भावना के क्रम में, तथाकथित रूप में संकीर्ण नहीं होने दिया है, न ही वह संस्कारगत द्विधा में पड़कर धर्मविरुद्ध काम और कामविरुद्ध धर्म में किसी एक को चुन सकने की असमर्थता से आक्रान्त हुए हैं। फलतः, उनके द्वारा चित्रित सौन्दर्य कला के फलक पर मिश्रित या कुण्ठित होने की अपेक्षा ततोऽधिक विशदता और उदात्तता के साथ रूपायित हुआ है। उन्होंने धर्म और काम के कलात्मक सौन्दर्य को सर्वथा स्वतन्त्र रूप में उपन्यस्त किया है। फलतः, उनकी कलादृष्टि या कलात्मक आदर्श, पुरुषार्थचतुष्टय की सिद्धि के जीवनादर्श में गतार्थ होते हुए भी अपनी विशुद्धता का स्वतन्त्र अभिज्ञान उपस्थित करता है । फिर भी, कहीं-कहीं कला के माध्यम से आध्यात्मिक सन्देश की अभिव्यक्ति में उनका भारतीय संस्कार बलात् उभर आया है और उनकी यह भारतीय कला - धारणा प्रत्यक्ष हो उठी है कि आत्मा के आन्तरिक चेतन के स्पन्दन के बिना भौतिक कलासृष्टि पूर्णता नहीं प्राप्त कर सकती। इस प्रकार, वह निस्सन्देह मुक्त कला-चेतना के रूढिप्रौढ कथाकार प्रमाणित होते । इस सन्दर्भ में 'वसुदेवहिण्डी' में अंकित कतिपय कलात्मक आसंग द्रष्टव्य हैं । संघदासगणी ने पत्रच्छेद्यकला (धम्मिल्लहिण्डी : पृ. ५८ और गन्धर्वदत्तालम्भ : पृ. १३४) का उल्लेख किया है, जो उपर्युक्त बहत्तर कलाओं में सत्तरवीं संख्या में परिगणित है । वस्तुत: यह पत्तों और तृणों को अनेक प्रकार से काट-छाँटकर सुन्दर आकार की वस्तुएँ बनाने की कला है । इस कला की कथा का प्रसंग इस प्रकार है : चम्पानगरी के निकट चन्दा नाम नदी बहती थी । धम्मिल्ल जल के निकट क्षणभर के लिए बैठा। वहाँ उसने कमल का पत्ता लेकर (नदी में कमल का होना भी कथारूढि ही है) उसका अनेक प्रकार का पत्रच्छेद्य बनाया, फिर उसे सूखे वल्कल की नाव पर रखकर नदी में छोड़ दिया, जो बहता हुआ गंगानदी में पहुँच गया। इस प्रकार, वह पत्रच्छेद्य बनाता और उसे नदी में छोड़ता रहा । तभी, उसने देखा कि नदीतट से दो आदमी जल्दी-जल्दी आ रहे हैं। वे दोनों उसके पास आये और उन्होंने पूछा : “किसने इस पत्रच्छेद्य की रचना की है ?” “मैंने " धम्मिल्ल ने कहा । तब उन दोनों आदमियों ने कहा: “स्वामी ! इस नगरी में कपिल नाम राजा हैं। उनके युवराज का नाम रविसेन है। वह गंगातट पर ललितगोष्ठी में खेल रहे थे कि उन्होंने पत्रच्छेद्य जल में बहते हुए देखा और हमें पता लगाने को भेजा कि यह पत्रच्छेद्य बड़ी निपुणता के साथ किसने बनाया है । उसी क्रम में आपके दर्शन हुए। कृपापूर्वक आप युवराज के पास चलें ।" धम्मिल्ल युवराज के समीप गया (पृ. ५८) । इससे स्पष्ट है कि पत्रच्छेद्य- कला राजघरानों में पर्याप्त प्रिय थी और इस कला के विशेषज्ञों को राजा और युवराज की ओर से सातिशय सम्मान प्राप्त होता था । पत्रच्छेद्य, चित्रकला का ही विशिष्ट प्रकार है । यह कला 'ललितविस्तर' की कलासूची में भी परिगणित है, जिसकी तुलना वात्स्यायन के कामशास्त्र की विशेषकच्छेद्य कला' से की जा सकती है । १. कला-विवेचन (पूर्ववत्, पृ. ११६-११७ ।
SR No.022622
Book TitleVasudevhindi Bharatiya Jivan Aur Sanskruti Ki Bruhat Katha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShreeranjan Suridevi
PublisherPrakrit Jainshastra aur Ahimsa Shodh Samsthan
Publication Year1993
Total Pages654
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size18 MB
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