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वसुदेवहिण्डी : भारतीय जीवन और संस्कृति की बृहत्कथा और धार्मिक सूत्र की एकतानता तथा उपमा और दृष्टान्तों की एकरस परम्परा के बावजूद प्राकृत-कथाओं की रोचकता और रुचिरता से इनकार नहीं किया जा सकता। चेतना के प्रवाह के साथ चरित्र के विकास का प्रदर्शन प्राकृत-कथाओं का एक ऐसा मूल्यवान् पक्ष है कि जिससे कथा-साहित्य का निर्माण-कौशल विकसित हुआ है।
आगमिक प्राकृत-कथासाहित्य के उत्तर काल में अपरम्परित प्राकृत-कथा के तीन प्रतिनिधि आचार्य कूटस्थ दिखाई पड़ते हैं, जिन्होंने कथा के क्षेत्र में क्रोशशिला की स्थापना की है। इनके नाम हैं : विमलसूरि, संघदासगणिवाचक और हरिभद्र। विमलसूरि और संघदासगणिवाचक के मध्यवर्ती आचार्य पादलिप्तसूरि का नाम भी उल्लेख्य है, जिन्होंने 'तरंगवती' नामक शिखरस्थ कथाग्रन्थ की रचना की थी। 'तरंगवती', रामायण की परम्परा से स्वतन्त्र, सर्वाधिक प्राचीन प्राकृत-काव्य है। यदि इसकी मूल पाण्डुलिपि सुलभ हो जाती, तो तदनुजन्मा 'वसुदेवहिण्डी' के अध्ययन को ततोऽधिक सांगोपांगता प्राप्त होती । तरंगवती-कथा का उल्लेख 'विशेषावश्यकभाष्य' (जिनभद्र), ‘अनुयोगद्वारसूत्र' (आर्यरक्षित), 'कुवलयमाला' (उद्योतनसूरि), 'तिलकमंजरी' (धनपाल) आदि में किया गया है। हाल सातवाहन की 'गाथासप्तशती' में पादलिप्त-कृत गाथाओं का संकलन पाया जाता है। तेरहवीं शती के प्रभाचन्द्र ने, जो आचार्यों एवं कवियों के प्रसिद्ध चरित्रलेखक हैं, अपने ‘प्रभावकचरित्र' में पादलिप्तसूरि के जीवनवृत्त पर प्रकाश डाला है। पादलिप्तसूरि विद्याधरकुल के थे और उनके गुरु का नाम नागहस्ती था। अनुमानतः, 'तरंगवती' का रचनाकाल सन् ५०० ई. से पूर्व है। वीरभद्र के शिष्य नेमिचन्द्र ने 'तरंगवती' का 'तरंगलोला' नाम से संक्षेपण किया है, जो प्रकाश में आ चुका है। यह एक धार्मिक उपन्यास है और इसकी ख्याति लोकोत्तर कथा के रूप में अत्यधिक थी। 'निशीथचूर्णि' के अनुसार, डॉ. हीरालाल जैन की मान्यता है कि इसके भाष्यकार आचार्य संघदासगणी थे। नरवाहनदत्त की कथा लौकिक और तरंगवती, मगधसेना आदि की कथाएँ लोकोत्तर हैं : “अणेगित्थीहिं जा कामकहा, तत्थ लोइया णरवाहणदत्तकहा लोउत्तरिया तरंगवतीमगधसेणादीणि। 'वसुदेवहिण्डी' की भाँति 'तरंगवती' की कथा उत्तमपुरुष में वर्णित है। आर्यिका तरंगवती ने राजगृह की धरती पर अपने जीवन की, प्रेम, विरक्ति और दीक्षा की कहानी स्वयं कही है । बाणभट्ट की 'कादम्बरी' जिस प्रकार नायिकाप्रधान कथाकृति है, उसी प्रकार 'तरंगवती' भी। तरंगवती के नायक के विषय में डॉ. नेमिचन्द्र शास्त्री ने 'तरंगवती' की आलोचना करते हुए, बड़ी ही सटीक उपमा उपन्यस्त की है : “तरंगवती में नायक का चरित्र उसी प्रकार दबा हुआ है, जिस प्रकार पहाड़ी शिला के नीचे मधुर स्रोत।" निश्चय ही, जीवन के तनावों और संघर्ष के घात-प्रत्याघातों के विन्यास की दृष्टि से यह उपन्यास महतोमहीयान् है । अस्तु;
___ उपर्युक्त प्राकृत-कथासाहित्य की आचार्यत्रयी में दूसरी-तीसरी शती के आचार्य विमलसूरि ने वाल्मीकि परम्परा से प्रचलित रामकथा को नई भंगिमा प्रदान करने के निमित्त 'पउमचरियं' की १. द्र. 'भारतीय संस्कृति में जैनधर्म का योगदान' : डॉ. हीरालाल जैन; प्र. मध्यप्रदेश शासन-साहित्य-परिषद,
भोपाल, सन् १९६२ ई, पृ.१३६ २. उपरिवत्, पृ.७२ ३. संक्षिप्त तरंगवती' की प्रस्तावना में उद्धृत, पृ.७