________________
वसुदेवहिण्डी की पारम्परिक विद्याएँ
२१३
प्राय: वात-पित्त के प्रतिलोम होने से शूलरोग उत्पन्न होता है, इसलिए आयुर्वेदज्ञों ने शूलरोगी के लिए वात-पित्त का अनुलोमन करनेवाली, अर्थात् दीपन- पाचन औषधि देने की अनुशंसा की है। तदनुसार ही धम्मिल्ल ज्योंही 'संवाह' नामक वन्यग्राम में पहुँचा, त्योंही उसे शूलरोग से काँपती हुई एक स्त्री दिखाई पड़ी । धम्मिल्ल को उस रोगिणी पर दया आ गई और उसने वातपित्तानुलोमक अनुकूल औषध उसे दिया, जिससे वह स्वस्थ हो गई (धम्मिल्लचरित : पृ ६९) ।
क्रिमिकुष्ठी रोगी के नाम से ही मन आतंकित हो उठता है । उसके यथार्थ रूप की परीक्षा और उसकी समीचीन चिकित्सा करनेवाले वैद्य का साहस और धैर्य तो निश्चय ही सातिशय प्रशंसनीय है । संघदासगणी ने ऐसे ही एक साहसी और कुशल वैद्य की चर्चा की है, जिसने एक क्रिमिकुष्ठी साधु की चिकित्सा करके उसे कुष्ठमुक्त कर दिया था। यह वैद्य पूर्वभव के स्वयं ऋषभस्वामी थे, जो वत्सावती विजय की प्रभंकरा नगरी में सुविधि नामक वैद्य के पुत्र केशव के रूप में उत्पन्न हुए थे । कथाकार ने कथा के माध्यम से कुष्ठ की सांगोपांग चिकित्सा - विधि को बड़ी रोचकता के साथ इस प्रकार उपन्यस्त किया है :
I
वर्तमान भव में केशव वैद्य के रूप में उत्पन्न, पूर्वजन्म के ऋषभस्वामी के, पूर्वभव के पोते श्रेयांसनाथ, श्रेष्ठिपुत्र अभयघोष के रूप में वर्त्तमान भव में उत्पन्न हुए। प्रभंकरा नगरी के राजपुत्र, पुरोहितपुत्र, मन्त्रिपुत्र और सार्थवाहपुत्र के साथ अभयघोष की मैत्री हो गई । एक दिन वे पाँचों मित्र जब एकत्र थे, तब उन्होंने क्रिमिकुष्ठी (क्रिमिपूर्ण कोदवाले) व्रतधारी साधु को देखा । पाँचों मित्रों ने परिहासपूर्वक वैद्यपुत्र केशव से कहा: “आपको इस तरह के तपस्वी की चिकित्सा नहीं करनी चाहिए, अपितु जो धनवान् हैं, उनकी ही चिकित्सा आप करें ।” वैद्यपुत्र ने कहा: “मैं तो धार्मिक व्यक्ति को नीरोग करूँगा, विशेषकर साधु की परिचर्या तो अवश्य ही करूँगा। इस साधु ने देह की ममता छोड़ दी है, इसलिए औषध पीना नहीं चाहता है, फलत: बाह्योपचार - औषध के अभ्यंग और मर्दन के द्वारा इसकी चिकित्सा की जायगी। मेरे पास 'शतसहस्रपाकतैल' है । गोशीर्षचन्दन और कम्बलरल (श्रेष्ठ मुलायम ऊनी कम्बल) की आवश्यकता है।” पाँचों मित्रों ने वैद्य की बात मानते हुए कहा : "इस कोढ़ी की आप चिकित्सा करें, हम सभी वस्तुएँ जुटायेंगे।”
राजपुत्र ने कम्बलरत्न दिया । गोशीर्षचन्दन भी मँगवा लिया गया। उसके बाद व्रत में स्थित साधु से निवेदन किया गया। " भगवन् ! हितबुद्धि से हम आपको जो पीड़ा देंगे, उसके लिए आप हमें क्षमा करेंगे ।” इसके बाद साधु के पूरे शरीर में उक्त तैल चुपड़ दिया गया। उससे कोढ़ के कीड़े कुलबुला उठे और भयंकर पीड़ा देते हुए बाहर निकलने लगे। पीड़ा से मूर्च्छित साधु को कम्बल से ढक दिया गया। कम्बल ठण्डा था, इसलिए उसमें कीड़े चिपक गये। इसके बाद ठण्डी जगह में कम्बल को झाड़कर कीड़ों को नष्ट होने के लिए छोड़ दिया गया। कुष्ठी साधु के शरीर पर चन्दन का लेप लगा दिया गया। इससे साधु जब होश में आ गया, तब पुनः उसके कोढ़ पर तैल चुपड़ दिया गया। कीड़े उसी क्रम से बाहर निकलने लगे। फिर, मूर्च्छित साधु को कम्बल से ढक दिया गया। तत्पश्चात्, चन्दन का लेप लगाकर साधु को प्रकृतिस्थ कर दिया गया । जब क्रिमि बिलकुल नष्ट हो गये, तब साधु के शरीर पर चन्दन का लेप करके वे सभी मित्र अपने-अपने घर चले गये (नीलयशालम्भ : पृ. १७७) ।