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वसदेवहिण्डी:भारतीय जीवन और संस्कृति की बृहत्कथा
कोई भी परम्परा या सम्प्रदाय यदि सामाजिक गति को केवल तथाकथित धार्मिक नियति से संयोजित करने की चेष्टा करता है, तो वह पल्लवित होने की अपेक्षा संकीर्ण और स्थायी होने की अपेक्षा अस्थायी हो जाता है। श्रमण-परम्परा की स्थायिता का मूलकारण धर्म, दर्शन और साहित्य के क्षेत्र में क्रान्तिकारी वैचारिक उदारता है। श्रमण-परम्परा की प्राकृत-कथाओं में उदारदृष्टिवादी साहित्य, धर्म और दर्शन की समन्वित त्रिवेणी प्रवाहित हुई है, अतएव इसी परिप्रेक्ष्य में प्राकृत-कथाओं का मूल्यांकन न्यायोचित होगा। आगम-परवत्तीं प्राकृत-कथासाहित्य की सबसे बड़ी उपलब्धि यही नहीं है कि प्राकृत-कथाकारों ने लोक-प्रचलित कथाओं को धार्मिक परिवेश प्रदान किया है या श्रेष्ठ कथाओं की सर्जना केवल धर्म-प्रचार के निमित्त की है। प्राकृत-कथाओं का प्रधान उद्देश्य केवल सिद्धान्त-विशेष की स्थापना करना भी नहीं है। वरंच, सिद्धान्त-विशेष की स्थापना और धार्मिक परिवेश के प्रस्तवन के साथ ही अपने समय के सम्पूर्ण राष्ट्रधर्म या युगधर्म का प्रतिबिम्बन भी प्राकृत-कथा का प्रमुख प्रतिपाद्य है, जिसमें भावों की रसपेशलता, सौन्दर्य-चेतना
और निर्दुष्ट मनोरंजन के तथ्य भी स्वभावतः समाकलित हो गये हैं। कहना यह चाहिए कि प्राकृत-कथाकारों ने अपनी कथाओं में धर्म-साधना या दार्शनिक सिद्धान्तों की विवेचना को साम्प्रदायिक आवेश से आवृत करने के आग्रही होते हुए भी संरचना-शिल्प, भाव-सौन्दर्य, पदशय्या, भणिति-भंगी. बिम्बविधान. प्रतीक-रमणीयता आदि की दष्टि से अपने कथाकार के व्यक्तित्व को खण्डित नहीं होने दिया। हालाँकि इस तथ्य से भी इनकार नहीं किया जा सकता कि किसी कथाकार या रचनाकार के लिए जिस अन्तर्निगूढ निर्वैयक्तिकता या अनाग्रहशीलता या धर्मनिरपेक्षता की अपेक्षा होती है, उससे प्राकृत-कथाकार अपने को प्रतिबद्ध नहीं रख सके। वे अनेकान्त, अपरिग्रह एवं अहिंसा का अखण्ड वैचारिक समर्थन भी करते रहे और अपने धर्म की श्रेष्ठता का डिण्डिमघोष भी।
ऐसा इसलिए सम्भव हुआ कि वैदिक धर्म के यज्ञीय आडम्बरों और अनाचारों से विमुक्ति के लिए भगवान् महावीर ने लोकजीवन को अहिंसा और अपरिग्रह से सम्पुटित जिस अनेकान्तवादी अभिनव धर्म का सन्देश दिया था, वह राजधर्म के रूप में स्वीकृत था, इसलिए उसके प्रचार-प्रसार का कार्य राज्याश्रित बुद्धिवादियों या दर्शन, ज्ञान और चारित्र के सम्यक्त्व द्वारा मोक्ष के आकांक्षी श्रतज्ञ तथा श्रमण कथाकारों का नैतिक एवं धार्मिक इतिकर्तव्य था। इसके अतिरिक्त. कथा-कहानी प्रचार-प्रसार का अधिक प्रभावकारी माध्यम सिद्ध होती है, इसलिए कथा के व्याज से धर्म और नीति की बातें बड़ी सरलता से जनसामान्य को हृदयंगम कराई जा सकती हैं। यही कारण है कि जैनागमोक्त धर्म के आचारिक और वैचारिक पक्ष की विवेचना और उसके व्यापक प्रचार के निमित्त प्राकृत-कथाएँ अनकल माध्यम मानी गई हों। अतएव, तत्कालीन लोकतन्त्रीय राजधर्म के प्रति किसी भी लोकचिन्तक कलाकार की पूज्य भावना सहज सम्भाव्य है, जो उसके राष्ट्रीय दायित्व के पालन के प्रति सजगता का संकेतक भी है। स्पष्ट है कि प्राकृत-कथाकारों की रचना-प्रतिभा धर्म, दर्शन और साहित्य के क्षेत्र में सममति थी। धार्मिक चेतना, दार्शनिक प्रमा तथा साहित्यिक विदग्धता के शास्त्रीय समन्वय की प्रतिमूर्ति प्राकृत के कथाकारों की कथाभूमि एक साथ धर्मोद्घोष से मुखर, दार्शनिक उन्मेष से प्रखर तथा साहित्यिक सुषमा से मधुर है। इसीलिए, प्राकृत-कथाओं के मूल्य-निर्धारण के निमित्त अभिनव दृष्टि और स्वतन्त्र मानसिकता की अपेक्षा है।