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________________ वसुदेवहिण्डी की पारम्परिक विद्याएँ १९९ प्रभावशाली दिखाई पड़ते हैं, यदि आपके पास कोई शक्ति- विशेष हो, तो इसे (रानी को) पिशाच से मुक्त कराइए, ताकि वह बेचारी पुनः सुखमय जीवन प्राप्त करे और इस प्रकार आप ऋषियों और राजा के भी प्रियकारी हों।" स्पष्ट है कि यहाँ वसुदेव का व्यक्तित्व एक महातान्त्रिक चिकित्सक के रूप में उभरता है । आज भी 'आत्माराम' कोटि के बड़े-बड़े तान्त्रिक वर्तमान हैं, जो तन्त्रविद्या या भूतविद्या के पारंगत होते हुए भी उसे व्यवहार-जगत् में प्रकट नहीं करते। ऐसे आधुनिक महान् तान्त्रिकों में पुण्यश्लोक महामहोपाध्याय पं. गोपीनाथ कविराज का नाम सादर उल्लेखनीय है । भारतीय तान्त्रिक साधना में इस बात का उल्लेख है कि तन्त्रविद्या के सिद्ध हो जाने पर वह मातृस्वरूपा विद्या अनन्त प्रकार ऐश्वर्य एवं विविध विभूतियाँ व्यष्टिगत आत्मस्वरूप को देने के लिए तैयार हो जाती है, किन्तु इन ऐश्वर्यों की कामना करने एवं इनको स्वीकार कर लेने पर महायोगी या महातान्त्रिक समष्टि-रूप में जीवों के साथ सम्बन्ध रखकर उनके समष्टि-प्रेम को नहीं पा सकता । अतएव, इसी महाभावदशा की स्थिति में वसुदेव ऐश्वर्यों का त्याग करके जगत्कल्याण के लिए अखण्ड महायोग-साधना में प्रवृत्त हुए थे। इससे वसुदेव द्वारा आत्मजगत् या सैद्धान्तिक जगत् में भूतविद्या का अधिकाधिक मूल्यन और परजगत् या व्यवहार - जगत् में उसका ततोऽधिक अवमूल्यन स्पष्टतया सूचित होता है । अस्तु संघदासगणी ने भोजन के ही प्रसंग में शास्त्रोपदिष्ट भोजन के विविध प्रकारों का भी उल्लेख किया है। आयुर्वेदशास्त्र में भोजन के छह प्रकार निर्दिष्ट हैं : भक्ष्य, भोज्य, चर्व्य, चोष्य या चूष्य, लेह्य और पेय । पूड़ी, लड्डू, मिठाई आदि भक्ष्य हैं; भात, दाल आदि भोज्य कहे गये हैं; चूड़ा, चना आदि चर्व्य हैं, तो ईख, दाडिम आदि चूष्य; पुनः पानक, शर्करोदक आदि पेय हैं, तो रसाला (सिखरन), चटनी, खटमिट्ठी आदि लेह्य माने गये हैं। रक्तवतीलम्भ (पृ. २१८) की कथा में उल्लेख . है कि वसुदेव जब लशुनिका के आश्रयदाता व्यापारी के घर पर गये, तब वहाँ उन्हें षड्विध भोजन सम्मानित किया गया । भोजन सोने और चाँदी के बरतनों में परोसा गया था। आयुर्वेदिक दृष्टि से सोने के बरतन में भोजन दोषनाशक पथ्य और दृष्टिवर्द्धक माना गया है और चाँदी के बरतन में भोजन नेत्रहितकारक एवं पित्त-कफ-वात- नाशक कहा गया है। वसुदेव के लिए यथानिर्दिष्ट सकुशल उपायों से सिद्ध की गई भोजन-सामग्री परोसी गई थी : जैसे सिंहकेसर मिठाई, मूँग उड़द के लड्डू आदि भक्ष्य; मुलायम स्वच्छ कलम चावल का भात (आदि भोज्य); राजाओं के लिए . आस्वाद्य लेह्य पदार्थ; जिह्वा को प्रसन्न करनेवाले, विविध वस्तुओं से तैयार किये गये पेय आदि । इससे स्पष्ट है कि उस समय के पाकशास्त्री चिकित्साशास्त्र के अनुकूल ही भोजन तैयार करते थे । कलम चावल का भोजन पथ्य और सुपरिणामी माना जाता था (नीलयशालम्भ : पृ. १८० ) । इसी प्रसंग में यह भी उल्लेख है कि घी आदि चिकने पदार्थों से बने भोजन की चिकनई दूर करने के लिए हाथ और मुँह को उड़द के चूर्ण से धोया जाता था और भोजन के बाद मुँह की शुद्धि (मुखशुद्धि) के लिए फल खाने का विधान था । मुखसुगन्धि के लिए ताम्बूल ग्रहण १. विशेष विवरण के लिए द्रष्टव्य : 'परिषद्-पत्रिका' : म. म. पं. गोपीनाथ कविराज -स्मृतितीर्थ, वर्ष १८, अंक २, जुलाई, १९७८ ई, पृ. ५९ । २. द्रष्टव्य : भावप्रकाश, दिनचर्यादिप्रकरण, श्लोक १२४ ।
SR No.022622
Book TitleVasudevhindi Bharatiya Jivan Aur Sanskruti Ki Bruhat Katha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShreeranjan Suridevi
PublisherPrakrit Jainshastra aur Ahimsa Shodh Samsthan
Publication Year1993
Total Pages654
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size18 MB
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