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वसुदेवहिण्डी की पारम्परिक विद्याएँ
१९३ मानव-जीवन के प्रत्यक्ष और परोक्ष सभी रहस्यों का विवेचन करता है, साथ ही प्रतीकों द्वारा जीवन के समस्त आवृत पक्षों को अनावृत करता है, जिससे मनुष्य को अज्ञात से ज्ञात की ओर बढ़ने में अधिक सुविधा होती है। इसलिए, यह कहना अत्युक्ति नहीं कि मानव का कोई भी व्यावहारिक कार्य ज्योतिष-ज्ञान के विना सम्पन्न नहीं हो सकता।
आयुर्वेदोक्त रोगचिकित्सा, विशेषकर ज्वरचिकित्सा और बालरोग-चिकित्सा का सम्बन्ध तो प्रत्यक्षत: तन्त्रशास्त्र से ही जुड़ा हुआ है। रोगनिवारण के लिए दुर्गासप्तशती-प्रोक्त इस सिद्ध मान्त्रिक श्लोक का पाठ उपयुक्त माना गया है :
रोगानशेषानपहंसि तुष्टा रुष्टा तु कामान्सकलानभीष्टान् ।
त्वामाश्रितानां न विपन्नराणां त्वामाश्रिता ह्याश्रयतां प्रयान्ति ॥ (११.२९) 'चरकसंहिता' के रचयिता महर्षि अग्निवेश के अनुसार, ज्वर महेश्वर के कोप से उत्पन्न हुआ है। इसलिए, ज्वर-विनाश के लिए मन्त्रजप का भी विधान है, विशेषतया महादेव की प्रसन्नता के निमित्त महामृत्युंजय या मृत्युंजय मन्त्र का जप तो सर्वप्रथित है। बालरोग-चिकित्सा आयुर्वेद के अष्टांग के अन्तर्गत 'कौमारभृत्य' का विषय है । ग्रह से पीड़ित बच्चों के रोग-निवारण के लिए भी मन्त्रजप का विधान है। नौ बाल-ग्रहों (स्कन्द, स्कन्दापस्मार, शकुनि, रेवती, पूतना, गन्धपूतना, शीतपूतना, मुखमण्डिका, नैगमेय या नैगमेष) में शकुनि, रेवती, पूतना आदि विशेष पीड़ाकारक हैं। सुश्रुत में तो बालग्रह-चिकित्सा के लिए स्पष्ट ही तान्त्रिक विधान किया गया है। कहा गया है कि वैद्य पवित्र होकर बालक को पुरातन घृत से अभ्यंग करे; पवित्र स्थान पर, बच्चे के चारों ओर सरसों बिखेरे और तेल का दिया जलाये। रोगात बच्चे के पास सदा अग्नि में एलादिगण में पठित ओषधियों (इलायची, तज, दालचीनी, नागकेसर, तगर, कंकुम आदि) के साथ तिल, गेहूँ, उड़द आदि में सुगन्ध द्रव्य (चन्दन, राल आदि) मिलाकर हवन करे । बालक को गन्ध और माला से अलंकृत करे तथा अग्नि में कृत्तिका के लिए 'स्वाहा-स्वाहा' के उच्चारण के साथ आहुतियाँ प्रदान करे।
बालग्रह के निवारण के लिए महर्षि सुश्रुत ने मन्त्र का विधान किया है। मन्त्र इस प्रकार है:
नमः स्कन्दाय देवाय ग्रहाधिपतये नमः । शिरसा त्वामभिवन्देऽहं प्रतिगृणीष्व मे बलिम् ॥
नीरूजो निर्विकारच शिशुमें जायतां द्रुतम् । भूताभिषंग-जन्य ज्वर के नाश तथा शीघ्र प्रसव के उपाय के लिए देवपूजन और मन्त्र का विनियोग किया गया है। इससे आयुर्वेद का तन्त्रशास्त्र से स्पष्ट सम्बन्ध सुविदित है।
१. महामृत्युंजय (शैवतन्त्रोक्त) मत्र इस प्रकार है :
ॐ त्र्यम्बकं यजामहे सुगन्धिं पुष्टिवर्धनम्।
उर्वारुक्मिव बन्धनान्मृत्योर्मुक्षीय मामृतात् ।। २. सुश्रुतसंहिता, उत्तरतन्त्र, नवग्रहाकृतिविज्ञानीय नामक सैंतीसवाँ अध्याय, श्लो. २१ ।