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वसुदेवहिण्डी की पारम्परिक विद्याएँ
१८५ से युक्त होकर अपने कार्यों का संचालन करने लगे। इसके बाद द्वितीय कुलकर ने नक्षत्रविषयक शंकाओं का निराकरण कर अपने युग के व्यक्तियों को आकाशमण्डल की समस्त बातें बताईं। कहना न होगा कि संघदासगणी ने 'वसुदेवहिण्डी' में ज्योतिष की सृष्टि-प्रक्रिया के प्रायः समस्त तत्त्वों को समाहृत करने की चेष्टा की है। .
शकुनकौतुकः
ज्योतिष का एक प्रमुख अंग शकुन भी है। ज्योतिष में इस शास्त्र का भी स्वतन्त्र विकास हुआ है। इसमें कार्य के पूर्व होनेवाले शुभाशुभ शकुनों का प्रतिपादन आकर्षक ढंग से किया गया है। धम्मिल्लहिण्डी की अगडदत्त-कथा में उल्लेख है कि कौशाम्बी के दृढप्रहारी ने अगडदत्त को जब अस्त्रविद्या की शिक्षा देना शुरू किया था, तब उसके पहले शकुनकौतुक की क्रिया पूरी की गई थी। शकुन में आँखों या भुजाओं का फड़कना, सवत्सा गाय को देखना आदि बातें
आती हैं और कौतुक में स्नान, रक्षाबन्धन, हवन आदि क्रियाएँ की जाती हैं। वसुदेव के साथ जितनी पलियों का विवाह हुआ है, प्राय: सबमें विवाह-पूर्व कौतुक के सम्पन्न होने का उल्लेख संघदासगणी ने किया है।
मातंगवृद्धा ने वसुदेव को जिस समय वेताल से श्मशान-गृह में पकड़ मँगवाया था, उस समय वसुदेव को कई शुभ शकुन दृष्टिगोचर हुए थे। जैसे, कुछ दूर निकलने पर वसुदेव के पैरों से शोभासम्पन्न माला की लड़ियाँ आ लगीं। फिर, थोड़ी दूर आगे बढ़ने पर अनुकूल उजला बैल दिखाई पड़ा, फिर थोड़ी दूर पर बैठा हुआ हाथी दिखाई पड़ा। कुछ दूर आगे जाने पर चैत्यगृह मिला और वहाँ साधुओं का स्वर सुनाई पड़ा। इन सबको वसुदेव ने शुभ शकुन के रूप में स्वीकार किया। दसवें पुण्ड्रालम्भ में, वसुदेव 'प्रशस्त शकुन' देखकर ही द्यूतसभा में गये थे (पृ. २१०)। ___पाँचवें सोमश्रीलम्भ के प्रारम्भ में भ्रमण करते हुए वसुदेव को वातमृग दिखाई पड़े थे। वे पक्षी की तरह उड़कर चले गये। तब वसुदेव ने सोचा : “वातमृगों का दर्शन तो बड़ा शुभ होता है। यह तो लाभ का सूचक है।"
इस प्रकार, 'वसुदेवहिण्डी' में अनेक शकुनकौतुकों का यथाप्रसंग वर्णन जैनागमों के आधार पर हुआ है। यद्यपि, परवर्ती काल में जैन सम्प्रदाय के अनेक ज्योतिषियों ने शकुनशास्त्र पर विशदता से विचार किया है। शकुन के प्रसंग में ही अष्टांगमहानिमित्त (केतुमतीलम्भ : पृ. ३१५) की नामतः चर्चा संघदासगणी ने की है, जो निश्चय ही स्थानांग' पर आधृत है। स्थानांग में आठ प्रकार के, अर्थात् आठ अंगोंवाले महानिमित्त का उल्लेख हुआ है। जैसे : भूमि-सम्बन्धी, उत्पातों से सम्बद्ध, स्वप्न-विषयक, अन्तरिक्ष-सम्बन्धी, अंग-सम्बन्धी, स्वर, लक्षण और व्यंजन-सम्बन्धी, ये आठ महानिमित्त हैं। भूमिकम्प आदि शुभाशुभ महानिमित्तों को 'भौम' कहा गया है; आकस्मिक उपद्रव के सूचक महानिमित्तों को 'उत्पात' की संज्ञा दी गई है; शुभाशुभ स्वप्न-विषयक महानिमित्त 'स्वप' शब्द से संज्ञित हैं; नक्षत्र, ग्रह आदि से सम्बद्ध शुभाशुभ महानिमित्त को 'अन्तरिक्ष' १. महाणिमित्तपदं । अट्ठविहे महाणिमित्ते पण्णत्ते, तं जहा भौमे, उप्पाते, सुविणे अंतलिक्खे, अंगे, सरे, लक्खणे, वंजने।-ठाणाग (स्थानाग),८।२३ ।