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________________ वसुदेवहिण्डी की पारम्परिक विद्याएँ ‘आग्निवेश्य गृह्यसूत्र' (१.५.४, ६.३) में ध्रुवदर्शन के निम्नांकित मन्त्र का विनियोग है : ध्रुवं नमस्यामि मनसा ध्रुवेण ध्रुवं नौ सख्यं दीर्घमायुश्च भूयात् । अद्भुग्धावस्मिश्च परे च लोके धुवं प्रविष्टौ स्याम शरणं सुखार्त्तो ॥ १८३ अर्थात्, स्थिर चित्त से मैं ध्रुव को नमस्कार करता हूँ, हमारी मित्रता स्थिर हो और आयु दीर्घ हो । इहलोक और परलोक में अवियुक्त भाव से हम ध्रुव की शरण में प्रविष्ट होकर सुखी हो जायँ । ‘मानवगृह्यसूत्र’ (१.१४.१०) और 'वाराहगृह्यसूत्र' (१५.२१) में ध्रुव, अरुन्धती, जीवन्ती और सप्तर्षि नक्षत्रों को दिखाने की क्रिया में निम्नांकित मन्त्र का विनियोग है : अच्युता ध्रुवा ध्रुवपत्नी ध्रुवं पश्येम सर्वतः । ध्रुवासः पर्वता इमे ध्रुवा स्त्री पतिकुलेयम् ॥ अर्थात्, तुम अविचल स्थिर ध्रुवपत्नी हो, हम सभी ओर ध्रुव को देखें । ये पर्वत, ध्रुव, अर्थात् स्थिर हैं, पति के कुल में यह स्त्री स्थिर हो जाय । इस प्रकार वैदिक गृह्यसूत्रों में ध्रुवदर्शन' का अतिशय अनिवार्य महत्त्व है । विवाह-संस्कार के लिए विहित यह वैदिक कर्म चूँकि नक्षत्र-दर्शन से सम्बद्ध है, इसलिए ज्योतिषशास्त्र के अन्तर्गत परिगणनीय है । इसी ज्योतिषमूलक वैदिक प्रथा के परिपालन के सन्दर्भ में, वसुदेव के कपिला के साथ विवाह होने के बाद, ध्रुवदर्शन से उन ( वर-वधू) के प्रसन्न ( 'धुवदंसणसुमणसो' ) होने के प्रसंग (कपिलालम्भ : पृ. २००) का उल्लेख संघदासगणी ने किया है। इससे स्पष्ट ही उनपर वैदिक प्रभाव का संकेत प्राप्त होता है । तीर्थंकर शान्तिनाथ के, अपनी माता अचिरा के गर्भ में आने पर कुरु-जनपद के सारे प्राकृतिक उपद्रव शान्त हो गये थे और नौ मास, साढ़े सात रात-दिन बीतने पर ज्येष्ठ कृष्णपक्ष की त्रयोदशी तिथि को भरणी नक्षत्र के योग में तीर्थंकर ने जन्म लिया था। भगवान् शान्तिनाथ का कद चालीस . धनुष्य (चार हाथ) ऊँचा था । सोलह महीने कम पच्चीस हजार वर्ष तक संसार में प्रकाश फैलाकर उन्होंने विद्याधर- चारणों द्वारा सेवित सम्मेदपर्वत-शिखर पर एक मास का उपवास करके ज्येष्ठ कृष्णपक्ष की त्रयोदशी तिथि को भरणी नक्षत्र में चन्द्रमा के योग होने पर निर्वाण प्राप्त किया था । जन्म और मृत्यु की एक ही तिथि शायद ही किसी भाग्यवान् को प्राप्त होती है । ज्योतिष का यह शुभ योग भगवान् शान्तिनाथ जैसे महापुरुष को सुलभ हुआ था (केतुमतीलम्भ: पृ. ३४० तथा ३४३) । इसी प्रकार, चन्द्रमा के अनेक उत्तम योगों में पहुँचने पर तथा प्रसवकाल पूरा होने पर तीर्थंकर कुन्थुनाथ का जन्म हुआ था। फिर, कृत्तिका नक्षत्र में चन्द्रमा के चले जाने पर, उसी शुभ मुहूर्त में कुन्थुनाथ ने महाभिनिष्क्रमण करके सिद्धत्व प्राप्त किया (तत्रैव पृ. ३४५-३४६) । अरनाथ की माता, देवी ने भी जब महापुरुष की उत्पत्ति के सूचक शुभ स्वप्नों को देखा, तब उनके गर्भ में अरनाथ आये। नौ महीने के बाद, दसवें महीने के प्रारम्भ में उनका जन्म हुआ । ज्योतिष की गणना के अनुसार, उस समय चन्द्रमा रेवती नक्षत्र के योग में था और पूर्वदिशामुख १. विशेष विवरण के लिए द्रष्टव्य : 'गृह्यमन्त्र और उनका विनियोग' : डॉ. कृष्ण लाल, प्र, नेशनल पब्लिशिंग हाउस; पृ. १६० - १६५ ।
SR No.022622
Book TitleVasudevhindi Bharatiya Jivan Aur Sanskruti Ki Bruhat Katha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShreeranjan Suridevi
PublisherPrakrit Jainshastra aur Ahimsa Shodh Samsthan
Publication Year1993
Total Pages654
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size18 MB
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