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वसुदेवहिण्डी : भारतीय जीवन और संस्कृति की वृहत्कथा नक्षत्र में अष्टादशपर्वत पर दस हजार साधुओं, निन्यानब्बे पुत्रों तथा आठ पौत्रों के साथ एक ही समय में निर्वाण प्राप्त किया था (सोमश्रीलम्भ : पृ. १८५) । मृत्यु या जन्म के समय अभिजित् नक्षत्र का योग किसी महापुरुष को ही प्राप्त होता है। भारतीय ज्योतिष-परम्परा जन्म के समय जिस प्रकार शुभ मुहूर्त को अनुकूल मानती है, उसी प्रकार मृत्यु के समय भी। शुभ घड़ी में मृत्यु होने से मृतक के परिवार में, भविष्य में जल्दी कोई अनिष्ट नहीं होता। अन्यथा, किसी घातक योग में मृत्यु होने से मृतक के परिवार के अन्य कई सदस्य भी लगातार मृत्युयोग में पड़ जाते हैं। अतएव, भगवान् ऋषभस्वामी की मृत्यु की घटना शुभयोग में कल्पित की गई है । इसके अतिरिक्त, शुभयोग में मृत्यु होने से स्वर्गप्राप्ति या मोक्षलाभ होता है। इसीलिए, भगवान् ऋषभस्वामी की निर्वाण-तिथि एक शुभतिथि मानी जाती है।
____ वसुदेव के साथ नीलयशा का पाणिग्रहण शुभ निमित्त और सुन्दर मुहूर्त में हुआ था (नीलयशालम्भ : पृ. १८०) । ज्योतिषशास्त्र के सामान्य सिद्धान्त के अनुसार, विवाह के लिए मूल, अनुराधा, मृगशिरा, रेवती, हस्त, उत्तराफाल्गुनी, उत्तराषाढा, उत्तराभाद्रपद, स्वाती, मघा और रोहिणी, ये नक्षत्र तथा ज्येष्ठ, माघ, फाल्गुन, वैशाख, मार्गशीर्ष और आषाढ़, ये महीने शुभ माने गये हैं। संघदासगणी द्वारा प्रयुक्त ज्योतिषी के इस वाक्य ‘पसत्थं निमित्तं, मुहत्तो य सोहणो' से विवाह के उक्त शुभ मुहूर्तों में ही किसी एक की ओर संकेत किया गया है। मातंगवृद्धा ने नीलयशा के साथ विवाह के निमित्त वसुदेव को जिस समय वेताल से पकड़ मँगवाया था, उस समय रास्ते में उन्हें माला की लड़ियाँ, उजला बैल, हाथी, चैत्यगृह, साधु आदि अनेक शुभ शकुन भी दिखाई पड़े थे, इसलिए वह सब 'प्रशस्त निमित्त' का ही सूचक था। वसुदेव का सोमश्री के साथ पाणिग्रहण भी शुभ दिन और शुभ विवाह-लग्न में ही हुआ था। इसी प्रकार, अमिततेज और ज्योतिषभ एवं श्रीविजय और सुतारा का विवाह शुभ तिथि, करण और मुहूर्त में हुआ था।
विवाह के बाद ध्रुवदर्शन वैदिक परम्परा-स्वीकृत मांगलिक प्रथा है। सामवेदीय गृह्यसूत्रों में विधान है कि ध्रुवनक्षत्र या ध्रुवतारे के दर्शन के पूर्व वर को छह मन्त्रों के साथ छह आहतियाँ अर्पित करनी चाहिए। गृह्यसूत्रों में ध्रुवदर्शन के अनेक मन्त्र हैं। इन मन्त्रों में दम्पति के मंगल की भावना निहित है। दो-एक मन्त्र द्रष्टव्य हैं :
धुवैधि पोष्या मयि मां त्वादाद् बृहस्पतिः । मया पत्या प्रजावती सं जीव: शरदः शतम् ॥
(शांखायन गृह्यसूत्र, १.१७.३ ; पारस्करगृह्यसूत्र, १.८.१९) अर्थात्, मुझे तुम्हें बृहस्पति ने दिया है, मेरे द्वारा पोषण-योग्य तुम मेरे प्रति स्थिर हो जाओ। मुझ पति के साथ सन्तान-सहित तुम सौ वर्षों तक जीवित रहो। 'आपस्तम्बगृह्यसूत्र' (२.६.१२) का एक मन्त्र है:
ध्रुवक्षितिधुर्वयोनिर्बुवमसि ध्रुवतः स्थितम् ।
त्वं नक्षत्राणां मेंध्यसि स मा पाहि पृतन्यत: ॥ अर्थात्, स्थिर निवासवाले, स्थिर जन्मस्थानवाले, तुम ध्रुव (स्थिर) हो। तुम स्थिरता से स्थित हो। तुम नक्षत्रों के स्तम्भ हो। ऐसे तुम शत्रु से मेरी रक्षा करो।