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वसुदेवहिण्डी की पारम्परिक विद्याएँ
१७७ स्वयम्प्रभा जब युवती हो गई, तब राजा ज्वलनजटी ने पुनः अपना प्रश्न दुहराया कि इसे किसके हाथ सौंपा जाय । तब, सम्भिन्नश्रोत्र ने विचार कर विस्तारपूर्वक कहा : “महाराज ! सुनें । जैसा कि साधु कहते हैं, एक बार ज़ब प्रथम तीर्थंकर भगवान् ऋषभस्वामी अष्टापद पर्वत पर पधारे, तब उनसे उनके पुत्र राजा भरत ने भावी तीर्थंकर चक्रवर्ती बलदेव और वासुदेव के सम्बन्ध में प्रश्न किया। ऋषभस्वामी ने उत्तर में बताया कि जो तीर्थंकर जिस काल में होंगे, उनका उस काल में प्रभाव अवश्य पड़ेगा। अतीत में, जैसा जैन साधु ने कहा है, इस प्रकार के दस तीर्थंकर हुए हैं
और चार चक्रवर्ती भी हो चुके हैं, जिनमें बलदेव और वासुदेव, सम्प्रति, राजा प्रजापति के पुत्र अचल और त्रिपृष्ठ हैं, ऐसी पौराणिक श्रुति है। मैं पुनः भविष्य की गति के आधार पर कहता हूँ कि त्रिपृष्ठ अश्वग्रीव को युद्ध में पराजित करके विद्याधर-सहित अर्द्धभरत का भोग करेगा और आपको विद्याधरों का स्वामित्व सौंपेगा। आपकी यह पत्री (स्वयम्प्रभा) उस त्रिपृष्ठ की पुत्रवती प्रधानमहिषी होगी, इसमें सन्देह नहीं है। ज्योतिषी के ऐसा कहने पर राजा सन्तुष्ट हुआ और उसने उसे विपुल वस्तु, गन्ध और माल्य से सम्मानित कर विदा किया और कहा : “आपने जो कहा है, वह सत्य हो (केतुमतीलम्भ : पृ. ३११)।"
राजा अश्वग्रीव ने जब अपने ज्योतिषी अश्वबिन्दु से अपने प्रतिशत्रु के बारे में पूछा, तब उसने कहा : “जो आपके दूत चण्डसिंह का अपमान करेगा और पश्चिम में दुर्द्धर्ष सिंह का विनाश करेगा, वही आपका प्रतिशत्रु होगा।” ज्योतिषी के आदेशानुसार, अचल और त्रिपृष्ठ ने दूत को पोतनपुर में बहुत अपमानित किया और त्रिपृष्ठ ने, निरायुध रहकर, केवल भुजाओं के प्रहार से ही, पश्चिम प्रदेश में, सिंह को मार डाला। प्रतिशत्रु की इस अपूर्व वीरता पर अश्वग्रीव भी भौंचक रह गया और बोला : “ओह ! मनुष्य का यह काम अद्भुत है (तत्रैव : पृ. ३११) !” ।
सम्भिन्नश्रोत्र का पुत्र दीपशिख भी बहुत बड़ा नैमित्तिक था। उसने अपहृता रानी सुतारा के विषय में वस्तुस्थिति की सूचना दी थी। और, शाण्डिल्यायन ने राजा श्रीविजय के आरोग्य तथा कुशलता का समाचार कहा था। इसके लिए स्वयं राजमाता स्वयम्प्रभा ने दोनों ज्योतिषियों (शाण्डिल्यायन और दीपशिख) को सम्मानित किया था (तत्रैव : पृ. ३१७)।
अष्टांगमहानिमित्त का अभ्यासी शाण्डिल्यायन ज्योतिषी ने तो बड़ी रोमांचकारी भविष्यवाणी की थी। कथा है : एक दिन देवों के बीच इन्द्र की तरह, हजारों राजाओं से घिरा पोतनपुर का राजा श्रीविजय अपनी सभा में बैठा था। तभी, सौम्यरूप एक ब्राह्मण आया और राजा को जयाशीर्वाद देकर बोला : “मैं ज्योतिष-विद्या में पारंगत हूँ। मैंने ज्ञानचक्षु से जो देखा है, उसे आपको अवश्य ही सुनना चाहिए । आज से सातवें दिन पोतनपुर के राजा के माथे पर वज्र गिरेगा, इसमें सन्देह नहीं है।" यह कहकर ब्राह्मण खड़ा रहा। महादोषयुक्त ब्राह्मण-वचन को सुनकर सारी सभा और सभी राजे क्रुद्ध हो उठे। रोषपूर्ण नेत्रों से ब्राह्मण को लक्ष्य कर युवराज बलभद्र ने कहा : “जब पोतनपुर के अधिपति के माथे पर वज्र गिरेगा, तब तुम्हारे माथे पर क्या गिरेगा?" ब्राह्मण ज्योतिषी ने निभीकता से उत्तर दिया : “महाराज ! क्रुद्ध न हों, तब मुझपर आभरणों की वर्षा होगी।"
सभी मन्त्री मिलकर राजा श्रीविजय के भय-निवारण का उपाय सोचने-विचारने लगे। एक मन्त्री बोला : “कहा जाता है, समुद्र में वज्र का कोई प्रभाव नहीं पड़ता, इसलिए स्वामी को शीघ्र