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वसुदेवहिण्डी की पौराणिक कथाएँ
१४५ 'वसुदेवहिण्डी' की विशेषता यह है कि अमूर्त धारणाओं की अभिव्यक्ति के लिए मूर्त प्रतीकों के व्यवहार द्वारा इसके रचयिता ने अपनी विचार-पद्धति को अपनी अनुभव-संकुल संवेदना की अन्विति का माध्यम बना दिया है, फलतः यह कथा-रचना शुष्क विचारों से निर्मित शास्त्र नहीं, अपितु महत्तर रसमय कलाकृति बन गई है।
सच पूछिए तो, 'वसुदेवहिण्डी' की मिथक-कथाओं की चर्चा एक स्वतन्त्र शोध-अध्ययन का विषय है।
__ (घ) प्रकीर्ण कथाएँ 'वसुदेवहिण्डी' की कथा रोमांस-कथा होने के कारण, उसमें कथा या घटना के विकास-नैरन्तर्य की अपेक्षा उसकी सहज प्रवृत्ति प्रवर्द्धन या लम्बा होने की है । दूसरे शब्दों में कहें तो, रोमांस-कथा में, घटनाओं के विकास में क्षिप्रता या परिवर्तन की अपेक्षा घोलन या विवर्तन की स्थिति पाई जाती है। जिस प्रकार कपोत-कपोती आपस में मिलने पर घण्टों एक ही मनःस्थिति में गुटरते रहते हैं, उसी प्रकार रोमांस-कथा एक समान भावकेन्द्रित दशा में विवर्तित होती हुई क्रमश: लम्बी बनती चली जाती है। और इस प्रकार, रोमांस की नन्दतिकता से आपूर्ण कोई भी कथा बृहत्कथा में बदल जाती है या कथा की सरिता सागर बन जाती है। कथा को लम्बा बनाने में प्रकीर्ण कथाओं का सहयोग, महत्त्वपूर्ण होने के कारण, उल्लेखनीय है ।
प्रसिद्ध जैनागम 'दशवैकालिकनियुक्ति' में प्रकीर्णक कथा की निरुक्ति के सन्दर्भ में कहा गया है कि 'प्रकीर्णक' नाम से जो प्रकीर्ण (अनेक प्रकार की कथाओं का मिश्रण) कथा कही जाती है, उसे ही 'प्रकीर्णक कथा कहते हैं।' प्रकीर्ण कथा की गणना 'नो-मातृका-पद' के दो भेदों (ग्रथित-रचनाबद्ध तथा प्रकीर्णक-मुक्तक) में की गई है। नो-मातृका-पद नो-अपराध-पद के दो भेदों (मातृका-पद, नो-मातृका-पद) में द्वितीयस्थानीय है। प्रकीर्ण कथा अपने-आपमें मुक्त या स्वच्छन्द होती है। इसमें दशवैकालिक-प्रोक्त (गाथा-सं. २०८-२११) अकथा, विकथा और कथा, इन तीनों प्रकार की कथाओं का समाहार सम्भव है। इन कथाओं को धर्मकथा, कामकथा, अर्थकथा और मिश्रित कथा, इन चार स्वरूपों में वर्गीकृत किया गया है। 'वसुदेवहिण्डी' में प्रकीर्ण कथाओं का जाल-सा बिछा हुआ है। यह कथाकृति प्रकीर्ण कथाओं से परिगुम्फित होकर महाकथा में परिणत हो गई है। ये प्रकीर्ण कथाएँ 'वसुदेवहिण्डी' की मूल रोमांस-कथा को प्रवर्द्धित या लम्बा करने में सहायक हुई हैं। 'वसुदेवहिण्डी' के अनुसार कथा के मुख्य दो भेद हैं: चरित और कल्पित । चरितकथा के पुन: दो भेद किये गये हैं : स्त्री और पुरुष की कथा एवं धर्म-अर्थ-काम के प्रयोजन से सम्बद्ध कथा। चरितकथा विपर्यय-युक्त, कुशल व्यक्तियों द्वारा कथितपूर्व तथा अपनी मति से जोड़ी गई रहती है। प्रकीर्ण कथा में इन सारे कथाभेदों का मिश्रण उपलब्ध है, अतएव प्रकीर्ण कथा को यदि संकीर्ण या मिश्रित कथा कहा जाय, तो कोई अत्युक्ति नहीं होगी।
१. पतिण्णगं नाम जो पइण्णा कहा कीरइ तं पइण्णगं भण्णइ।
-दशवैकालिकनियुक्ति, गाथा १७५ २. उपरिवत् ३. द्र. दसवाँ पुण्ड्रालम्भ, पृ. २०८-२०९