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वसुदेवहिण्डी की पौराणिक कथाएँ निश्चय ही, वह ऊपर से हमें देखेंगे और श्रमणसंघ को उपासना करते देखकर शान्त हो जायेंगे।" सभी साधु एक साथ विष्णु के पैरों पर आघात देने लगे। स्पर्शेन्द्रिय से संज्ञा पाकर महर्षि विष्णु ने धरती की ओर दृष्टि डाली। परिजन और अन्त:पुर-सहित राजा महापद्म को संघ की शरण में उपस्थित तथा मुनियों को कृतांजलि होकर शान्त होने की प्रार्थना करते देखकर विष्णुकुमार ने सोचा : “निश्चय ही श्रमणसंघ ने सपरिवार राजा महापद्म को क्षमा कर दिया है। इसलिए, अब संघ की आज्ञा का उल्लंघन उचित नहीं है।"
इसके बाद विष्णुकुमार अपने वैक्रिय शरीर को समेटकर शरच्चन्द्र के समान शुभदर्शन रूप के साथ धरती पर अवस्थित हुआ। विद्याधर-सहित देव-दानव विष्णु के प्रति प्रणत हुए और पुष्पवृष्टि करके अपने-अपने स्थान में चले गये। ___अतिप्राकृत पात्रों तथा चामत्कारिक घटनाओं से अतिशय गझिन प्रस्तुत मिथक-कथा में वस्तुओं का भावात्मक या कल्पनात्मक साक्षात्कार मिथिक स्तर पर तो होता ही है, वैज्ञानिक स्तर पर वस्तुओं का विविक्तीकरण और सिद्धान्त-निरूपण भी किया गया है। इस सन्दर्भ में, प्रस्तुत कथा में प्रतिपादित प्रकाश और ध्वनि की वैज्ञानिक गति-प्रक्रिया का भी उल्लेखनीय महत्त्व है। सामान्य वैज्ञानिक सिद्धान्त के अनुसार, प्रकाश में यह विशेषता है कि उसके संचारण (प्रोपेगेशन
ऑव लाइट) के लिए किसी पार्थिव माध्यम (मैटेरियल मीडियम) की आवश्यकता नहीं होती। प्रकाश की अदृश्य किरणें सरल रेखाओं में चलती हैं। उसकी किरणें निर्वात स्थानों से होकर भी गुजर सकती हैं। परन्तु, ध्वनि के साथ यह बात नहीं है। यह शून्य स्थानों से होकर नहीं गुजर सकती। इसके गमन के लिए पार्थिव माध्यम की आवश्यकता होती है । इसे ध्वनि-गमन (प्रोपेगेशन ऑव साउण्ड) का सिद्धान्त कहते हैं। हवा में ध्वनि का वेग (वेलोसिटी ऑव साउण्ड) •°c तापमान पर १०८० फुट या ३२२ मीटर प्रति सेकेण्ड होता है; किन्तु प्रकाश की किरणों का वेग (वेलोसिटी ऑव लाइट) प्रति सेकेण्ड १,८६,३२५ मील (२,९८,१२० कि.मी.) होता है। इससे स्पष्ट है कि प्रकाश तीव्रगामी और दूरगामी होता है, किन्तु ध्वनि मन्दगामी और नातिदूरगामी ।
आलोच्य कथा में, उक्त सामान्य वैज्ञानिक सिद्धान्त का मूल रूप सुरक्षित है । यद्यपि, उसे मिथकीय बोध की चामत्कारिकता के साथ अतिरंजित ढंग से उपस्थित किया गया है । विष्णुकुमार का दिव्य शरीर क्षण भर में एक लाख योजन विस्तृत हो गया और बढ़ते-बढ़ते इतना ऊँचा उठ गया कि ग्रहपथ उसके घुटने के पास था और शरीर का शेष भाग उस (ग्रहपथ) के भी ऊपर अन्तरिक्ष में चला गया था। प्रज्वलित अग्निपुंज के समान उसके शरीर का तेज और शरत्कालीन चन्द्रमा की भाँति उसका मुख अन्तरिक्ष में दिखाई तो पड़ता था; किन्तु शरीर के एक लाख योजन (एक अरब कोस' = तीन अरब बीस करोड़ किमी.) ऊपर उठ जाने से धरती पर प्रार्थना करते हुए मुनियों की ध्वनि उसे नहीं सुनाई पड़ती थी। क्योंकि, श्रेष्ठ श्रुतधर मुनि के अनुसार, बारह योजन से ऊपर अन्तरिक्ष में शब्द नहीं सुनाई पड़ता है। जिस प्रकार प्रकाश-वर्षों (लाइट ईयर्स) में परिमाप्य दूरी में स्थित ग्रहों या नक्षत्रों का प्रकाश धरती से दिखाई पड़ता है, उसी प्रकार एक लाख योजन की ऊँचाई में स्थित विष्णुकुमार के शरीर का प्रखर तेज धरती से दिखाई पड़ता था। कहना न होगा कि संघदासगणी ने इस मिथक कथा के द्वारा सूर्यलोक (अधिकतम दूरी ९ करोड़
२. जेनरल एन्थ्रोपोलॉजी', पृ.६०९