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________________ १३२ वसुदेवहिण्डी : भारतीय जीवन और संस्कृति की वृहत्कथा यह है कि वह नन्दतिक मूल्यों से सम्पृक्त अनेक आद्य प्रतीकों का गुच्छ हुआ करता है। अनेक धार्मिक और पारम्परीण अनुसरणशील बिम्बों के गुच्छ को ही हम 'मिथ' कहते हैं।" कॉलरिज, जॉर्ज वैले, हेनरिच जिम्मर आदि पाश्चात्य पण्डितों के मिथ-विषयक मन्तव्यों के अनुशीलन के परिप्रेक्ष्य में डॉ. कुमार विमल ने अपनी धारणा स्पष्ट करते हुए लिखा है कि 'मिथ' में प्राय: मानवेतर कथाएँ–विशेषकर देवताओं के चरित्र और कार्यकलाप–प्रधान रहती हैं।" 'मिथ' में मिथ्यातत्त्व की अधिकता और समाज की मौखिक परम्पराओं से सम्बद्ध रहने की प्रवृत्ति पाई जाती है। इसके अतिरिक्त, मिथ में कोई-न-कोई ‘मोटिफ' (विचार-वैशिष्ट्य) अन्तर्निहित रहता है, साथ ही सांगोपांग कथारूढि भी समाहित रहती है। इसीलिए, 'मिथ' और कथारूढि में कोई स्पष्ट या स्थूल विभाजक रेखा नहीं खींची जा सकती। कथारूढि की भाँति मिथ भी लोकजीवन की सामूहिक चेतना की ही उपज है। इस दृष्टि से पुराणकथा, कल्पित कथा या दन्तकथा आदि को 'मिथ' का या 'मिथक' कथा का पर्याय मान सकते हैं। मिथ की दन्तकथात्मकता को ध्यान में रखकर ही डॉ. कुमार विमल कहते हैं कि मिथ की प्रारम्भिक अवस्था में कपोल-कल्पना का तत्त्व अधिक रहता है। इसी प्रसंग में मिथ की व्युत्पत्ति की सार्थकता दिखलाते हुए उन्होंने लिखा है कि 'मिथ' ग्रीक शब्द 'माइथोस' से बना है, जिसका अर्थ होता है मुंह से निकला हुआ। इसीलिए, 'मिथ' कथा या गल्प से भी जुड़ा हुआ है। इस प्रकार, 'मिथ' एक ऐसी जातीय कल्पना है, जिसे बाद में चलकर धार्मिक विश्वासों ने स्वायत्त कर लिया। परम्परा से सम्बद्ध रहने के कारण मिथक और प्रतीक में ध्यातव्य साम्य है। प्रतीक अधिकांशत: धर्मभावना और मिथ से सम्बद्ध रहते हैं। मिथक-प्रतीक की पृष्ठभूमि में व्यक्ति-विशेष की नहीं, अपितु समुदाय-विशेष की धार्मिक और जातिगत या सम्प्रदायगत धारणाएँ तथा अन्धविश्वास क्रियाशील रहते हैं । जैसे, पुस्तक या वीणा सरस्वती के लिए, कमल या कलश लक्ष्मी के लिए, बिल्वपत्र या त्रिशूल शिव के लिए तथा तुलसीपत्र या चक्र विष्णु के लिए मिथक-प्रतीक की भूमिका का निर्वाह करते हैं। जैन पुराणों में चौबीस तीर्थंकरों के भी अपने-अपने मिथक-प्रतीक निर्दिष्ट हुए हैं। संघदासगणी ने भी बलदेव और वासुदेव के सम्बन्ध में पौराणिक श्रुति का सहारा लेते हुए कहा है कि परवर्ती काल में दोनों राजा प्रजापति के पुत्र अचल और त्रिपृष्ठ के रूप में उत्पन्न हुए थे : “इयाणिं बलदेव-वासुदेवा पयावइस्स रण्णो पुत्ता अयल-तिविठ्ठत्ति, एस ताव पोराणा सुती (पृ. ३११) ।" इस प्रकार, धर्म-भावना और पौराणिक दृष्टि पर निर्भर होने के कारण मिथक कथाएँ स्वभावत: प्रागैतिहासिक हुआ करती हैं। डॉ. रमेश कुन्तलमेघ' परीकथा (फेयरी टेल), पशुकथा (फेबल), लोककथा (फोकटेल) और निजन्धरियों (लीजेण्ड्स) जैसे कथारूपों की बीज-चेतना तथा मूल उत्स मिथक-कथा को मानते हैं। १. सौन्दर्यशास्त्र के तत्त्व', पृ. २५२ २. उपरिवत्, पृ. २५२-५३ ३. लेविस स्पेन्स : 'दि आउटलाइन ऑव माइथोलॉजी', पृ.१ ४.(क) 'सौन्दर्यशास्त्र के तत्त्व', पृ. २५३ (ख) एडविन होनिंग : 'डार्क कॉन्सियेट', लन्दन, सन् १९५९ ई, पृ. २४ ५. परिषद्-पत्रिका',जनवरी, १९७८ ई. (वर्ष १७ : अंक ४), पृ.९३
SR No.022622
Book TitleVasudevhindi Bharatiya Jivan Aur Sanskruti Ki Bruhat Katha
Original Sutra AuthorN/A
AuthorShreeranjan Suridevi
PublisherPrakrit Jainshastra aur Ahimsa Shodh Samsthan
Publication Year1993
Total Pages654
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size18 MB
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