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वसुदेवहिण्डी : भारतीय जीवन और संस्कृति की बृहत्कथा यो, 'पउमचरिय' का रचनाकाल निर्विवाद नहीं है। विभिन्न विद्वानों द्वारा विभिन्न दृष्टिकोणों से इसका काल' ईसापूर्व द्वितीय शतक से ईसा के चतुर्थ-पंचम शतक तक निर्धारित किया गया है। इसलिए, ‘पउमचरिय' 'वसुदेवहिण्डी' का पूर्ववत्ती, समकालीन तथा परवत्ती भी सिद्ध होता है। जो भी हो, किन्तु इतना निश्चित है कि संघदासगणी 'पउमचरिय' की कथा से अवगत नहीं थे, इसलिए उनकी 'रामायण' पूर्व की परम्परा से जुड़ी रहने पर भी उसपर 'पउमचरिय' का कोई प्रभाव नहीं है।
निष्कर्षः
__वस्तुतः, संघदासगणी की रामकथा अधिकांशत: ब्राह्मण-परम्परा की कथा से साम्य रखती है। कथाकार ने चौदहवें मदनवेगालम्भ के कथाप्रसंग में वैताढ्य की दक्षिण श्रेणी के विद्याधर मेघनाद की पुत्री पद्मश्री की कथा के विस्तार के क्रम में अपनी रामकथा ('रामायण' ) को एक अवान्तर कथा के रूप में प्रस्तुत किया है, जिसका पूर्वापरप्रसंग मूलकथा (पद्मश्री की कथा) से जुड़ी हुई है और जो लोकाख्यान से अधिक मूल्य-महत्त्व नहीं रखती।
___ ऐसी स्थिति में, यह बात स्पष्टतः उभरकर सामने आती है कि 'वसुदेवहिण्डी' 'पउमचरिय' से पूर्ववर्ती रचना है । 'वसुदेवहिण्डी' के रचनाकाल के पूर्व बौद्ध जातकों और 'वाल्मीकिरामायण' तथा 'महाभारत' की रामकथा की परम्पर अवश्य विद्यमान थी और संघदासगणी ने इसी परम्परा की रामकथा को आत्मसात् करके इसे अपनी कतिपय मौलिक और नवीन उद्भावनाओं के साथ, श्रमणवादी दृष्टि से, पुरुषार्थवादी सामाजिक अवधारणा के परिप्रेक्ष्य में, उपस्थापित किया है।
'पउमचरिय' उस समय रचा गया, जिस समय जैन श्रमणों में ईश्वरवाद या अवतारवाद के खण्डन का आग्रह पर्याप्त बद्धमूल हो चुका था । इसलिए, रामावतार की अलौकिकता को लौकिक पृष्ठभूमि देने के निमित्त विमलसूरि ने बौद्धों और ब्राह्मणों की रामकथा को, साथ ही उसके सम्पूर्ण मिथकों और लोकविश्वासों को भी नवकल्पता प्रदान की और पूर्ववर्ती सभी रामायणों को झूठ; तर्क एवं विश्वास के विरुद्ध तथा पण्डितों के लिए अश्रद्धेय घोषित कर दिया।
संघदासगणी के समय जैन श्रमणों में साम्प्रदायिक कदाग्रह कदाचित् ततोऽधिक बद्धमूल नहीं हुआ था, इसीलिए उन्होंने अपनी महत्कृति 'वसुदेवहिण्डी' में ब्राह्मण-परम्परा को अनेकान्तवादी दृष्टि के अनुकूल नीर-क्षीरन्याय से आत्मसात् किया है। इसीलिए, उसमें परवर्ती काल के आक्रमणात्मक संकीर्ण साम्प्रदायिक दृष्टिकोण की अपेक्षा बहुलांशत: सहानुभूतिपूर्ण समतामूलक उदार भावना के दिव्य दर्शन होते हैं।
१. 'पउमचरिय' के काल-निर्धारण के प्रसंग के लिए प्राकृत-ग्रन्थ-परिषद्, वाराणसी-५ (सन् १९६२ ई) द्वारा __ प्रकाशित संस्करण का भूमिका-भाग (पृ.८-१५) द्रष्टव्य है। २. तह विवरीयपयत्थं कईहि रामायणं रइयं ।
अलियं पि सव्वमेयं उववत्तिविरुद्धपच्चयगुणेहिं ॥ न य सद्दहन्ति पुरिसा हवन्ति जे पण्डिया लोए।-पउमचरिय : २.११६-१७