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वसुदेवहिण्डी : भारतीय जीवन और संस्कृति की बृहत्कथा तरंगों से परिपूर्ण अनन्त सौन्दर्य का समुद्र है।' किन्तु, इसके विपरीत, सामाजिक स्थिति के प्रति सतत सतर्क रहनेवाले श्रमण आचार्यों ने भगवत्प्रेम की पुष्टि के लिए कृष्ण की शृंगारमयी लोकोत्तर छटा और आत्मोत्सर्ग की अभिव्यंजना से जनता को रसोन्मत्त करने की अपेक्षा, लौकिक स्थूल दृष्टि से युक्त विषयवासनापूर्ण जीवों पर पड़नेवाले उन्मादकारी शृंगार के प्रतिकूल प्रभावों पर बराबर ध्यान रखा है। श्रमण-परम्परा के कृष्ण की यौवनलीला या कामलीला मूलतः उनके पुरुषार्थ या कला-वैचक्षण्य को ही द्योतित करती है, जिसमें उनके मानव-जीवन की अनेकरूपता प्रतिबिम्बित है, जो एक अच्छे प्रबन्धकाव्य के लिए आवश्यक तत्त्व मानी जाती है। देश की अन्तर्वाहिनी मूल भावधारा के स्वरूप के ठीक-ठीक परिचय के लिए श्रमण-परम्परा के कृष्णचरित का अनुशीलन इसलिए आवश्यक है कि वह अपना निजी मौलिक वैशिष्ट्य रखता है।
'श्रीमद्भागवतपुराण' के अनुसार, कृष्ण स्वयं भगवान् है : 'कृष्णस्तु भगवान् स्वयम्।' (१.३.२८) श्रमण-परम्परा में भी जैनाचार्यों द्वारा कृष्ण-विषयक धार्मिक लोकमान्यताओं की उपेक्षा नहीं की गई है, अपितु उनका सम्मान करते हुए उन्हें विधिवत् अपनी परम्परा में यथास्थान सम्मिलित किया गया है और उन्हें 'अर्द्धभरताधिपति' माना गया है। राम और लक्ष्मण तथा कृष्ण और बलदेव के प्रति जनता का पूज्यभाव रहा है और उन्हें अवतारपुरुष माना गया है। जैनों ने भी चौबीस तीर्थंकरों के साथ-साथ कृष्ण (नवम वासुदेव) को भी तिरसठ शलाकापुरुषों (कर्मभूमि की सभ्यता के आदियुग में अपने धर्मोपदेश तथा चारित्र द्वारा सत्-असत् मार्गों के प्रदर्शक महापुरुषों) में आदरणीय स्थान देकर अपने पुराणों ['हरिवंशपुराण', 'पाण्डवपुराण' (जैन महाभारत), महापुराण', त्रिषष्टिशलाकापुरुषचरित' आदि ] में उनके जीवन-चरित्र का सविस्तर वर्णन किया है।
श्रमण-परम्परा के कृष्ण जैनों के बाईसवें तीर्थंकर नेमिनाथ के कुल से सम्बद्ध है । नेमिनाथ महाभारत-काल में उत्पन्न हुए। 'वसुदेवहिण्डी' के अनुसार, शौरिपुर के यादववंशी राजा अन्धकवृष्णि के ज्येष्ठ पुत्र हुए समुद्रविजय, जो दस दगार्डों में प्रथम थे । राजा समुद्रविजय से नेमिनाथ, दृढ़नेमि प्रभृति पुत्र उत्पन्न हुए। वसुदेव अन्धकवृष्णि के सबसे छोटे पुत्र (दस दशा) में अन्तिम) थे, जिनसे वासुदेव कृष्ण उत्पन्न हुए। इस प्रकार, नेमिनाथ और कृष्ण आपस में चचेरे भाई थे। जैसी कि प्रसिद्धि है, जरासन्ध के आतंक से त्रस्त होकर यादव शौरिपुर छोड़कर द्वारका में जा बसे थे । प्रसंगवश ज्ञातव्य है कि 'वसुदेवहिण्डी' की कृष्णकथा के आधार पर ही देवेन्द्रसूरि (१३वीं शती) ने ११६३ गाथाओं में 'कृष्णचरित्र' ग्रन्थ की रचना की। इसमें वसुदेव के जन्म और भ्रमण के वृत्तान्त की भी आवृत्ति है।' ____ 'वसुदेवहिण्डी' के 'पीठिका', 'मुख' और 'प्रतिमुख' नामक तीन अधिकारों में कृष्ण और उनके पूर्वजों-वंशजों की कथा परिगुम्फित है । 'वसुदेव ने किस प्रकार परलोक में फल प्राप्त किया?' राजा श्रेणिक के इस प्रश्न के उत्तर में भगवान् महावीर ने उनसे कहा कि आप पहले पीठिका सुनें; क्योंकि यह वसुदेव के बहुत बड़े (महान्) इतिहास के प्रासाद की पीठ (आधारभूमि) है। और, इसी क्रम में लगातार भगवान् महावीर ने 'मुख' और 'प्रतिमुख' नामक नातिदीर्घ अधिकारों द्वारा कृष्णकथा १. विशेष विवरण के लिए द्रष्टव्य : ‘भा. संस्कृति में जैनधर्म का योगदान', पृ. १४२ २. "इयाणि 'वसुदेवेणं कहं परलोगे फलं पत्तं' ति पुच्छिओ रण्णा भगवं परिकहेइ । इयाणिं पेढिया, एवमहांतो (महतो) इतिहासपासाइस्स पेढभूया।” (पेढिया, पृ.७७)